पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/५२

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प्रथम कोशस्थानः पातुनिर्देश ८.३ से तुलना कीजिए) । रूपधातु अर्थात् चार ध्यान वेदना से (सुखेन्द्रिय, सौमनस्येन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय, ८. १२) प्रभावित हैं। प्रथम तीन आरूप्य संज्ञा से प्रभावित हैं: अनन्ताकाशसंज्ञादि (८. ४)। चतुर्थ आरूप्य अथवा भवाग्न संस्कार मात्र (चेतना) से प्रभावित हैं। वहाँ चेतना ८० सहस्र कल्प (३.८१ सी) की आयु आक्षिप्त करती है। अन्ततः यह विविध भूमि "विज्ञानस्थिति'

इन स्थानों में विज्ञान प्रतिष्ठित है। स्कन्धों का अनुक्रम क्षेत्र-वीज संदर्शनार्थ

है। पहले चार स्कन्ध क्षेत्र हैं; पाँचवाँ वीज है। अतएव पाँच स्कन्व है, न कम, न अधिक। हम देखते हैं कि जो युक्तियाँ स्कन्धों के क्रम को युक्त सिद्ध करती हैं वह इस वाद को भी युक्त सिद्ध करती हैं जो वेदना और संज्ञा को पृयक् पृथक् स्कन्ध व्यवस्थित करता है। यह अन्य संस्कारों से औदारिक हैं; यह संक्लेश की प्रवृत्ति के कारण है; यह भोजन और व्यंजन हैं। इनका दो धातुओं पर आधि- पत्य है। प्राक् पंच वर्तमानादि भौतिकार्थ्याच्चतुष्टयम् । दूराशुतरवृत्त्यान्यद् यथास्थानं क्रमोऽयवा ॥२३॥ अब उस क्रम का निर्देश करना है जिसके अनुसार चक्षुरादि ६ इन्द्रिय, ६ आयतन या धातु परिगणित हैं; उस क्रम को बताना है. जिसके अनुसार विषय और इन इन्द्रियों के विज्ञान (रूपधातु, चक्षुर्विज्ञानवातु... .) परिगणित हैं। २३ ए. पहले पांच पूर्वोक्त हैं क्योंकि उनका विषय वर्तमान है।' [४४] चक्षुरादि पाँच इन्द्रिय पूर्व कहे गए हैं क्योंकि उनका विषय वर्तमान, सहोत्पन्न है। इसके विपरीत मन-इन्द्रिय (मनस्) का विषय अनियत है । किसी का विषय (१) वर्तमान, सहोत्पन्न (२) किसी का पूर्व या अतीत (३) किसी का अपर या अनागत (४) किसी का न्यध्व अर्थात् वर्तमान, पूर्व, अपर और (५) किसी का बनध्व होता है। २३ बी. प्रथम चार उक्त हैं क्योंकि उनका विषय केवल भौतिका रूप है।' चक्षुरिन्द्रिय, श्रोत्र०, घ्राण और जिह्वेन्द्रिय महाभूत (१.१२) को प्राप्त नहीं होते किन्तु केवल उपादायरूप (भौतिक, २.५० ए, ६५) को प्राप्त होते हैं। कार्यन्द्रिय का विषय अनियत है (१. ३५ए-बी, १० डी): कदाचित् महाभूत, कदाचित् उपादायरूप, कदाचित् उभय, इसके विषय होते हैं। २३ सी. यह चार दूर-आशुतरवृत्ति के कारण क्यायोग इतर से पूर्व कह गए हैं। इनकी वृति दूर, दूरतर, बागुतर है। १ पंचाग्यावर्तनानाति । भौतिकार्याच्चतुष्टयम् [व्याख्या ५०.३१ में पाठ भौतिका० है] दूराशुतरवृत्त्यान्य २