पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/५३

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अभिधर्मकोश चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय के विषय दूर (१.४३सी-डी) होते हैं । अतः यह दो से पूर्व उक्त हैं। इनमें भी चक्षुरिन्द्रिय की वृत्ति श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा दूरतर है। क्योंकि दूर से नदी को देखते हैं किन्तु उसका शब्द नहीं सुनते । अतः चक्षुरिन्द्रिय श्रोत्र से पूर्व उक्त है। प्राण और जिह्वा की वृत्ति दूर नहीं है। किन्तु घ्राण की वृत्ति जिह्वा की वृत्ति से आशुतर है। जिह्वा से अप्राप्त भोज्य पदार्थ के गन्ध का ग्रहण प्राण करता है। २३ डी. अथवा इन्द्रियों का क्रम उनके आश्रय के अनुसार है । चक्षुरिन्द्रिय का आश्रय या अधिष्ठान अर्थात चक्षु, सव से ऊपर है; उसके नीचे श्रोत्रेन्द्रिय का अधिष्ठान है; उसके नीचे घ्राणेन्द्रिय का अधिष्ठान है। [४५] सब से नीचे जिह्वेन्द्रिय का अधिष्ठान है। कार्यन्द्रिय अर्थात् काय का अधिष्ठान अपने समुदाय-रूप में जिह्वा के और नीचे है। मन-इन्द्रिय रूपी नहीं है (१. ४४ ए-बी)। विशेषणार्थ प्राधान्याद् बहुधर्माग्नसंग्रहात् । एकमायतनं रूपसेक धर्माख्यमुच्यते ॥२४॥ रूपस्कन्ध में संगृहीत १० आयतनों में एक ही रूपायतन की आख्या प्राप्त करता है। यद्यपि सव आयतन धर्म हैं तथापि केवल एक धर्म-आयतन कहलाता है। क्यों? २४. दूसरों से उसे विशेषित (= विभिन्न करने के लिए, अपनी प्रधानता के कारण, एक ही आयतन रूप-आयतन कहलाता है। दूसरों से उसे विशेषित करने के लिए और इसलिए कि उसमें वहु धर्म और सर्वोत्कृष्ट धर्म संगृहीत हैं केवल एक आयतन धर्म-आयतन कहलाता दस रूपी आयतनों में से (१. १४ए-बी) प्रत्येक आयतन है : विज्ञान-विशेषों के ५ विषयी है और ५ विषय हैं। समस्त का एक ही आयतनत्व नहीं है, एक ही विज्ञान-प्रभव नहीं है जिसे स्पायतन कहें। ९ के विशेषणार्थ अपने विशेष नाम हैं : चक्षुरायतन, श्रोत्रायतन, शब्दायतन... ...1 जो चक्षुरादि ९ से विदोपित है, जिसकी चक्षुरादि संज्ञा नहीं है और जो रूप है वह रूपायतन संज्ञा से जाना जायगा और इसलिए उसको नामान्तर नहीं देते। 3 अथवा [ययाधयं] क्रमः॥ १ विशेपणार्य प्राधान्याद् बहनधर्मसंग्रहात् । स्पायतनमेवकम् एकं च धर्मसंज्ञकम् ।। विभाषा, ७३, १४ ग्यारह युक्तियां गिनाती है जो रूपायतन, धर्मायतन इन आस्याओं फो युफ्त सिद्ध करती हैं।