पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६

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पूरों ने इस ग्रन्थ का फ्रेंच में अनुवाद प्रकाशित किया है। यह ग्रन्थ बड़े महत्त्व का है क्योंकि इसमें निशिका से सव टीकाकारों के मत का निरूपण है और वर्मपाल की टीका भी सन्निविष्ट है। वसुबन्धु ने अन्य भी अन्य लिखे थे, जो अप्राप्त हैं। विश्वभारती से विस्वभाव-निर्देश नाम का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इसके रचयिता वसुबन्धु वताये जाते हैं। वसुबन्धु के कुछ अन्य ग्रन्य ये हैं-पंचस्कन्य प्रकरण, व्याख्या-युक्ति और कर्मसिद्धिप्रकरण । वसुबन्धु को मृत्यु ८० वर्ष की अवस्था में अयोध्या में हुई।" वसुवन्धु के काल के विषय में विद्वानों में पिछले पचास वॉ से मतभेद रहा है। इधर रोम के श्री फाउवालनर ने वसुवन्धु के समय पर विस्तृत विचार करते हुए प्रतिपादित किया है कि वसुबन्धु नाम के दो आचार्य हुए थे—एक स्थविर वसुबन्धु जो असंग के भाई थे और जिनका समय ३२०-३८० ई० है एवं दूसरे आचार्य वसुबन्धु जिनका समय लगभग ४०० ई० से ४८० ई. तक है। पहले स्थविर वसुवन्धु ने हीनयान के सर्वास्तिवाद दर्शन पर कई ग्रन्थ लिखे और बाद में अपने ज्येष्ठ नाता असंग के प्रभाव से महायान पर कई ग्रन्यों की रचना की। दूसरे वसुबन्धु सौतान्तिक-नय के अनुयायी थे कौर इन्होंने ही अभिधर्म कोश की रचना को । यद्यपि इस मत का प्रतिपादन पाण्डित्यपूर्ण ढंग से हुआ है, किन्तु इस मत के अन्तिम रूप से मान्य होने में बाधाएं हैं। भारत और चीन को प्राचीन बहुसम्मत साक्षी के अनुगार अभिधर्मकोग के रचयिता वसुबन्धु ही विशिका-त्रिशिका एवं कर्मसिद्धिप्रकरण के भी कर्ता थे और वे बुद्ध निर्वाण के ९०० वर्ष बाद हुए थे। अतएव चौयी शती ही वसुवन्धु का बहुसम्मत समय है। परमार्य ने लिया है कि विक्रमा- दित्य उपाधिधारी एक गुप्त सम्राट् वसुबन्धु के भक्त थे और उन्होंने उन्हें अयोध्या में आमंत्रित करके अपने राजकुमार बालादित्य का गुरु नियत किया। फ्राउबालनर गुप्त राजा को स्कन्दगुप्त मानते हैं, किन्तु ये चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य थे, ऐसी अधिका सम्भावना है। इस सम्बन्ध में एक नये प्रमाण को ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है। यह सुविदित है कि बाण ने हर्षचरित में दिवाकरमित्र बौद्ध संन्यासी के आश्रम का वर्णन करते हुए लिखा है कि परम उपासक एवं शाक्य शासन में धुरीण विद्वान् अभिधर्मकोश का उपदेन देने थे (हर्पचरित, जप्टम उच्छ्वान, पृ० २३७) । तृतीय उच्छ्वास (पृ० ९१) में भी श्लेप से कोरा नामक ग्रन्य का उल्लेख नाया है जो मभि- धर्मकोश के लिये ही है। किन्तु छठे उच्छ्वास में अभिवर्मयोग का उल्लेस, जो अभी तक अज्ञात १. यसुबन्धु को निजी टीका के साथ मूल विशतिका मौर स्थिरमति को टोका पोसाय मूल निशितका सिलवां लेवी को प्राप्त हुई थीं। उन्होंने १९२५ में उनका संपादन-प्रकापान किया था। पूसे ने विशतिका फे तिव्यती अनुयाद के आधार पर फ्रेंच अनुवाद १९१२ में प्रकाशित किया । शुआन-चाइ ने विशिफा की सब टोकाओं पर एका समुदित प्रन्य विज्ञप्तिमाता- सिद्धि चीनी भाषा में लिलाया। पूरों ने १९२८ में उनो का फ्रेंच अनुवाद प्रकाशित पिया (बितर नित्स, भारतीय साहित्य का इतिहास, २।३६०)। २. आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्धधर्म-दर्शन, पटना, १९५६, ५० १६८-२७०। ३. ई० फाउपालनर, मान दी डेट माफ दी बुधिस्ट मान्सर साफ बोला बबन्य, रोग, १९५१ २