पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६०

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४५ प्रथम कौशस्थानः धातुनिर्देश प्रतिघातवश सप्रतिघ हुए विना ही विषय-प्रतिघातवश सप्रतिध हैं अर्थात् ५ इन्द्रिय । व्याख्या ५९.१७] ४. भदन्त कुमारलाभ कहते हैं : “वह सप्रतिघ कहलाता है जहां अन्य [काय] मनस् की उत्पत्ति का प्रतिघात कर सकता है । इसका विपर्यय अप्रतिघ है।" १८ धातुओं में कितने कुशल, अकुशल, अव्याकृत (४. ८, ९, ४५) हैं ? [५४]२९ सी-डी. ८ धातु अव्याकृत हैं अर्थात् रूप और शब्दको वजित कर पूर्वोक्त शेप ।' १० सप्रतिष (१.२९ वी-सी) धातुओं में से रूप और शब्दको वजित कर शेप अर्थात् ८ धातु- ५ रूपी इन्द्रिय, गन्ध, रस और स्प्रप्टव्य--अव्याकृत है क्योंकि उनका कुशल- अकुशल भाव नहीं कहा गया है अथवा, एक दूसरे मतके अनुसार, क्योंकि विपाक की दृष्टि से उनका व्याकरण नहीं हुआ है । निधान्ये कामधात्वाप्ताः सर्वे रूये चतुर्दश । विना गन्धरसन्नाणजिह्वाविज्ञानधातुभिः ॥३०॥ ३० ए. अन्य विविध है ।२ अन्य धातु यथायोग कुशल, अकुशल, अव्याकृत हैं। १. सप्त धातु (चित्तधातवः, १.१६ सी) कुशल होते हैं जब वह तीन कुशल-मूल [४.८] से संप्रयुक्त होते हैं, अकुशल होते हैं जब वह अकुशल-मूल से संप्रयुक्त होते हैं; अन्य अव्याकृत होते हैं । २. धर्मधातु (१.१५ सी-डो) में (१) कुशलमूल, इन मूलों से संप्रयुक्त धर्म, इन मूलों से समुत्थित धर्म, प्रतिसंख्यानिरोध या निर्वाण; (२) बकुशलमूल, इन मूलों से संप्रयुक्त धर्म, इन मूलों से समुत्यित धर्म; और (३) अन्याकृत धर्म यथा आकाश, संगृहीत हैं । ३. रूपवातु और शब्दधातु जव कुशल चित्त से समुत्थित कायिक या वाचिक कर्म (४. २६, ३ डी) होते हैं तव वह कुशल हैं, जब अकुशल चित्त से होते हैं तब अकुशल हैं। अन्य अव- स्याओं में यह अव्याकृत हैं । कामघातु, रूपधातु, आरूप्यवातु में (३.१-३)१८ धातुओं में से कितने धातु होते हैं ? १ अर्थात् जो मनत् नील विषय और चक्षु आश्रय को लेकर उत्पन्न होता है उसकी उत्पत्ति चक्षु और नील के बीच परकाय के अन्तरावरण से प्रतिहत हो सकती है : चक्षु और नील अतः सप्रतिघ हैं। इसके विपरीत न मनोधातु जिसकी वृत्ति मनो-विज्ञान के इन्द्रिय को है और न धर्मधातु जो मनोविज्ञान का स्वालम्बन है (यथा वेदना) सप्रतिघ हैं : धर्मधातु के प्रति मनोधातु से मनोविज्ञान की उत्पत्ति में कोई अन्तरावरण नहीं कर सकता । यत्रो- त्पित्सोर्मनसः प्रतिघातः शक्यते (परः) कर्तुम् । तदेव सप्रतिघं तद्विपर्ययादप्रतिघमिष्टम् । अव्याकृता अष्टौ ते रूपशब्दजिताः [व्यास्या ६०.५] ।--२.९ ए देखिए; विभाषा, ५१, ३, १४४, ४. २ त्रिधाऽन्ये व्याख्या ६०.१०] 3 महीशासकों का मत है कि पहले चार विज्ञान सदा अव्याकृत होते हैं और कायविज्ञान और मनोविज्ञान तीन प्रकार के होते हैं। सिद्धिमें इस प्रश्न पर विचार किया गया है। १