पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६१

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अभिधर्मकोश ३० ए-बी. कामधातु में सब होते हैं। [५५] सब धातु कामधातु से संप्रयुक्त हैं, प्रतिबद्ध हैं, कामधातु से विसंयुक्त नहीं है (विभाषा, १४५, १४)। ३० बी-डी. रूपधातु में गन्ध, रस, घ्राणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान को वर्जित कर चतुर्दश। १. वहाँ गन्ध और रस का अभाव है क्योंकि यह कवलीकार आहार है (३.३९) और रूपधातु में कोई ऐसा आश्रय उपपन्न नहीं होता जो इस आहार से विरक्त न हो । गन्ध और रस के अभाव के कारण प्राणविज्ञान और जिह्वाविज्ञान का भी अभाव होता है । आक्षेप-प्रष्टव्यधातु का भी वहां अभाव होगा क्योंकि यह भी कवलीकार आहार है। नहीं, क्योंकि स्प्रष्टव्यधातु एकान्ततः आहार नहीं है । रूपधातु में वह स्पष्टव्यधातु होता है जो आहार नहीं है । आक्षेप--गन्ध और रस में भी यह प्रसंग होता है । नहीं । स्प्रष्टव्य की परिविष्टि आहार के अतिरिक्त भी है । इसका इन्द्रियाश्रयभाव है, इसका आधारभाव है, इसका प्रावरणभाव है । आहाराभ्यवहार से अन्यत्र गन्ध और रस को कोई परिभोग नहीं है। जो सत्व आहार से विरक्त हैं उनके लिए इनका कोई प्रयोजन नहीं है । २. श्रीलाभ [व्या० ६१.४, श्रीलात] एक भिन्न अर्थ देते हैं । जब कामधातु का सत्व समापत्ति-समापन्न, ध्यान-समापन्न होता है तब वह रूप देखता है, शब्द श्रवण करता है, उसका काय ध्यानोत्पादित (८.९ वी) प्रश्रब्धि (कायकर्मण्यता) से सहगत स्प्रष्टव्यविशेष से अनुगृहीत होता है। इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि रूपधातु के देवनिकायों में, जिनको उपपत्तिध्यान (३.२, ८.१) कहते हैं, रूप, शब्द, स्प्रष्टव्य होते हैं किंतु गन्ध और रस नहीं होते। [५६] ३. हमारा निश्चय है कि यदि रूपधातु में गन्ध और रस का अभाव है तो घ्राणेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय का भी वहाँ अभाव होना चाहिए क्योंकि यह निष्प्रयोजन हैं। अतः रूप-धातु में केवल १२ धातु होते हैं। १. वैभाषिकदेशोय का प्रतिविधान--रूपधातु में घ्राणेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय का प्रयोजन है क्योंकि इनके विना शरीर-शोभा और वाग्विज्ञप्ति न होगी । ४ फामधात्वाप्ताः सर्वे व्याख्या ६०.२६] जो धर्म फिसो धातु में परियापन नहीं हैं, जो अधातुपतित हैं (अधात्वाप्त-अपरियापन) यह असंस्कृत और अनालव हैं। १ रूपे चतुर्दश । विना गन्धरसम्राणजिह्वाविज्ञानधातुभिः ॥ व्याख्या ६०,२९] । २.१२ में इस प्रश्न का पुनः विचार किया गया है। फयावत्यु, ८.७ से तुलना कीजिए।