पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६२

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४७ . प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश यदि प्रयोजन है तो प्राणेन्द्रिय-रूपप्रसाद के अधिष्ठान नासिका से आश्रय-शोभा होती ह, इन्द्रिय-रूपप्रसाद (१.४४) से नहीं; जिह्वेन्द्रिय के अधिष्ठान जिह्वा से, न कि जिह्वेन्द्रिय- रूपप्रसाद से, वचन होता है। वैभाषिकदेशीय-नासिका तथा जिह्वा जो इन्द्रिय के अधिष्ठान हैं अनिन्द्रिय नहीं हो सकते। कोई नासिका या जिह्वा नहीं है जिसमें प्राणेन्द्रिय या जिह्वेन्द्रिय के रूप-प्रसाद का अभाव हो । यथा पुरुषेन्द्रिय का अधिष्ठान सदा पुरुपेन्द्रिय नामक (१.४४ ए, २.२सी-डी) कायेन्द्रिय-विशेष से समन्वागत होता है। पुरुषेन्द्रिय के अभाव में पुरुषेन्द्रिय के अधिष्ठान का न होना युक्त है क्योंकि इस इन्द्रिय के बिना वह निष्प्रयोजन है। किन्तु प्राण और जिह्वेन्द्रिय से पृथक् भी इनके अधिष्ठान का प्रयोजन है। अतः इन्द्रिय के बिना भी घ्याण और जिह्वेन्द्रिय के अधिष्ठान का रूपधातु में संभव है । अतः रूपवातु में १२ ही धातु होते हैं। २. वैभाषिक का उत्तर---विना प्रयोजन के भी इन्द्रिय की उत्पत्ति हो सकती है, यथा गर्भ में जिनकी नियत मृत्यु होती है उनकी इन्द्रियों की अभिनिर्वृत्ति निष्प्रयोजन होती है। हो सकता है कि एक इन्द्रिय की अभिनिर्वृत्ति निष्प्रयोजन हो किन्तु यह निहतुक नहीं होती। इन्द्रिय-विशेष के प्रति तृष्णा से आहृत कर्म-विशेष के अतिरिक्त इन्द्रियाभिनिवृक्ति का अन्य हेतु क्या हो सकता है ? किन्तु जो विषय से, गन्व से, वितृष्ण है वह नियतरूपेण इन्द्रिय से, प्राणेन्द्रिय से भी वितृष्ण होता है। अतः कोई हेतु नहीं है जिससे रूपधातु में उपपन्न सत्वों में घ्राणेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय का प्रादुर्भाव हो क्योंकि यह सत्व गन्ध और रस से चितृप्ण हैं । अथवा आप बतायें कि रूपधातु में पुरुषेन्द्रिय की अभिनिर्वृत्ति क्यों नहीं होती? [५७] वैभाषिक का उत्तर-पुरुषेन्द्रिय अशोभा का हेतु है (२.१२) । उनमें क्या यह शोभा नहीं देता जो महापुरुषों के लक्षण से समन्वागत होते हैं ? पुनः प्रयोजनवश पुरुषेन्द्रिय की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु स्वकारण से होती है। कारण के होने पर यह अवश्य उत्पन्न होगी, चाहे यह अशोभाकर क्यों न हो। ३. सूत्र-प्रमाण । वैभाषिक के अनुसार यह पक्ष कि रूपधातु में प्राणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रिय अविद्यमान हैं सूत्र के विरुद्ध है। सूत्र की शिक्षा है कि रूपावचर सत्त्व अहीनेन्द्रिय, अविक- लेन्द्रिय होते हैं। वह कभी काण या कुण्ठ नहीं होते (३.९८ ए)। यह सूत्र कहता है कि रूपावचर सत्त्व की वह इन्द्रियाँ अविकल होती हैं जो रूपधातु में होती हैं। यदि वैभाषिक सूत्रार्थ का इस प्रकार परिग्रह नहीं करते तो इन सत्त्वों का पुरुषेन्द्रिय- संभव भी मानना होगा। ४. वैभाषिक का उत्तर और निष्कर्ष । --- १ कोशगतवस्तिगुह्य [व्याख्या ६२.१९] २ वीय, १ . ३४, १८६ से तुलना कीजिए।