पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६६

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प्रथम कोशस्थानः पातुनिर्देश कहते हैं। 'स्वभावविकल्प' वह वितर्क है जिसका विचार हम चैत्तों के कोश-स्थान (२.३३) में करेंगे। अन्य दो विकल्प : ३३ सी-डी, व्यग्ना मानसी प्रज्ञा, सर्व मानसी स्मृति ।। मानसी प्रज्ञा अर्थात् मनोविज्ञान-संप्रयुक्त धर्मों का प्रविचय; व्यग्ना अर्थात् असमाहित, समापन्नावस्था में नहीं (८.१) । यह अभिनिरूपणाविकल्प है। सर्व मानसी स्मृति, समाहित अथवा असमाहित, अनुस्मरणविकल्प है। सप्त सालम्बनाश्चित्तधातवोऽर्थ च धर्मतः। नवानुपात्तास्ते चाष्टौ शब्दश्चान्ये नव द्विधा ॥३४॥ [६२] कितने धातु 'सालम्बन' हैं अर्थात् विज्ञान के विषयी हैं ? ३४ ए-बी . सात 'सालम्बन' हैं। यह चित्त-धातु हैं।' चक्षुर्विज्ञानधातु, श्रोत्र०, प्राण, जिह्वा० काय०, मनोविज्ञानवातु, मनोधातु केवल 'सालम्बन' हैं क्योंकि वह सदा स्वविषय का ग्रहण करते हैं। ३४ वी . और धर्मधातु का एक प्रदेश भी। अर्थात् चित्तसंप्रयुक्त धर्मधातु (२.२३) । अन्य धातु अर्थात् १० रूपी धातु और धर्म- धातु का वह प्रदेश जो चित्त-विप्रयुक्त है (२.३५) 'अनालम्वन' है। कितने धातु 'अनुपात्त' हैं ? कितने 'उपात्त' है ? ३४ सी-डी. ९ अनुपात्त हैं अर्थात् यह ८ धातु और शब्द। २ ती व्यग्रा मानसी प्रज्ञा सर्वैव मानसी स्मृतिः। ३ मानसी प्रज्ञा अर्थात् 'मनसि भवा--यह श्रुत-चिन्तामयी है या उपपत्तिप्रातिलंभिका है । व्यग्रा' अर्थात् असमाहित, जिसके विविध आलम्बन (अन) हों अथवा जो विगतप्रधाना है क्योंकि वह बार बार आलम्बनान्तर का आश्रय लेती है। इस प्रज्ञा को अभिनिरूपणाविकल्प का नाम क्यों देते हैं ? क्योंकि अमुक अमुक आलम्बन में नाम की अपेक्षा कर (नामापेक्षया) इसको अभिप्रवृत्ति होती है और यह अभिनिरूपण करता है : “यह रूप, वेदना, अनित्य, दुःख है" इत्यादि । इसके विपरीत समाहित प्रज्ञा जो भावनामयो है नानको अपेक्षा न कर आलम्बन में प्रवृत्त होती है। अतः वह अभिनिरूपणा- विकल्प नहीं है। सर्व मानसी स्मृति अर्थात् समाहित और असमाहित । क्योंकि विभाषा के अनुसार मानसी स्मृति का आलम्बन अनुभूतार्यमात्र होता है और यह नाम की अपेक्षा नहीं करती। यह इस लक्षण के अनुसार है: "स्मृति क्या है ? चित्त का अभिलाप (चेततोऽभि- लापः)"। पांच विज्ञानकाय से संप्रयुक्त स्मृति को प्रवृत्ति अनुभूतार्य का अभिलाप नहीं है। अतः यह अनुस्मरण-विकल्प नहीं है। व्याख्या ३५.९] । २.२४ देखिए। सप्त सालम्बनाश्चित्तवातवः व्या० ६५.१२] मालम्बन के अर्थ पर १.२९ यो देखिए । विभंग, पृ.९५ से तुलना कीजिए । २ अर्घ च धर्मतः [व्या० ६५.१४] नवानुपात्तास्ते चाप्टौ शब्दश्च [व्या० ६५.२०,२७] 9 3