पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/६८

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश [६४] ३५ ए-सी. स्प्रष्टव्य द्विविध है; शेष ९ रूपी धातु केवल भौतिक रूप हैं और इसी प्रकार धर्मधातु का एक देश है जो रूपी है।' (१) चार महाभूत, खर, स्नेह, उष्णता, ईरण (१. १२), (२) सप्तविध भौतिक रूप, श्लक्ष्णत्व, कर्कश आदि (१.१० डी) स्प्रष्टव्य हैं। शेष रूपी धातु, ५ इन्द्रिय, प्रथम चार इन्द्रियों के आलम्बन, केवल भौतिक रूप हैं । इसी प्रकार अविज्ञप्ति (१.११) जो धर्मधातु में (१.१५ सी-डी) संगृहीत है । चित्तधातु (१.१६ सी) न भूत हैं, न भौतिक रूप । इसी प्रकार अविज्ञप्ति को वर्जित कर धर्मधातु। १. भदन्त वुद्धदेव के अनुसार दस आयतन अर्थात् ५ ज्ञानेन्द्रिय और उनके आलम्बन केवल भूत हैं। यह मत अयुक्त है । सूत्र अवधारित करता है कि चार महाभूत हैं और इनका लक्षण खवखट, स्नेहादि (१.१२ डी) अवधारित करता । किन्तु खक्खट, स्नेहादि स्प्रष्टव्य हैं [६५] और केवल स्प्रष्टव्य हैं : खक्खटत्व (काठिन्य) चक्षुरिन्द्रिय से गृहीत नहीं होता। इसके अतिरिक्त प्रत्येक इन्द्रिय अपने अनुकूल भौतिक रूप को प्राप्त होती है : वर्ण कायेन्द्रिय से गृहीत नहीं होता। पुनः इस सूत्र-वचन से यह सिद्ध होता है कि स्प्रष्टव्य भूत और उपादायरूप है और शेष ९ रूपी आयतन केवल उपादायरूप हैं: "हे भिक्षु ! चक्षु आध्यात्मिक आयतन (१.३९), रूपप्रसाद, उपादायरूप, रूपी, अनिदर्शन, सप्रतिष है" और इसी प्रकार अन्य चार रूपीन्द्रिय हैं जो इन्हीं शब्दों में वर्णित हैं। प्रथम चार आलम्बनों के बारे में सूत्र कहता है : “रूप वाह्य आयतन, उपादायल्प, रूपी, सनिदर्शन, सप्रतिघ है। इसी प्रकार - १ .. स्प्रष्टव्यं द्विविध शेषा रूपिणो नव भौतिकाः। धर्मधात्वेकदेशश्च [व्याख्या ६६.५] विभंग, पृ० ९६ से तुलना कीजिए। ३ विभाषा, १२७, १--इस निकाय में दो आचार्य हैं : बुद्धदेव और धर्मत्रात । बुद्धदेव कहते हैं कि "रूप केवल महाभूत है। चैत्त केवल चित्त हैं।" वह कहते हैं कि उपादायरूप महाभूत- विशेष है और चैत चित्त-विशेष हैं......." (कथावत्यु, ७.३ से तुलना कीजिए)- विभाषा, ७४, ८-सूत्र कहता है: "रूप चार महाभूत और भौतिक हैं।" सूत्र किस मत का प्रतिषेध करता है ? यह बुद्धदेव के मत का प्रतिषेध करता है । वुद्ध देखते हैं कि मनागत में एक आचार्य बुद्धदेव होंगे जो कहेंगे कि "महाभूतों के व्यतिरिक्त कोई पृथक् भौतिक रूप नहीं है।" इस मत का प्रतिषेध करने के लिए बुद्ध कहते हैं कि "रूप चार महाभूत है ...।"-- १४२.७--बुद्धदेव कहते हैं “सर्व संस्कृत महाभूत या चित्त है ; महाभूतों के अतिरिक्त कोई उपादावरूप नहीं है। चित्त से अन्य चत्त नहीं हैं। चित्त-चैत्त पर नीचे पृ० ६६ और २.२३ सो देखिए। कदाचित् आचार्य बुद्धदेव का हो नाम मयुरा के सिंह लेख में आया है । अतः (१) खरादि न होने से इन्द्रिय भूत नहीं हैं। (२) स्प्रप्टव्यधातु में भूत हैं क्योंकि स्प्रष्टव्य से खक्खट का ग्रहण होता है; (३) अन्य इन्द्रियों से गृहीत भौतिक रूप स्प्रप्टन्य से गृहीत नहीं होता।