पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७१

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अभिधर्मकोश विपाकजौपचयिकाः पंचाध्यात्म विपाकजाः। न शब्दोऽप्रतिधा अष्टौ नेष्यन्दिकविपाकजाः॥३७॥ निधान्ये द्रव्यमानेका क्षणिकाः पश्चिमास्त्रयः। चक्षुर्विज्ञानधात्वोः स्यात् पृथग्लाभः सहापि च ॥३८॥ १८ धातुओं में कितने विपाकज, कितने औपचयिक, कितने नैष्यन्दिक हैं ? ३७-३८ ए . ५ आध्यात्मिक धातु विपाकज और औपचयिक हैं; शब्द विपाकज नहीं है। ८ अप्रतिष धातु नैष्यन्दिक और विपाकज हैं ; अन्य तीन प्रकार के हैं।' (१) लक्षण १. विपाकज---अक्षरार्थ 'विपाक से उत्पन्न' । मध्यम पद का लोप है । 'विपाकहेतुज' (२ ५४) के लिए विपाकन है यथा 'गोयुक्त रथ' के लिए 'गोरथ' कहते हैं। अथवा विभाका' पद में 'विपाक' शब्द का अर्थ विपाक नहीं है किन्तु कर्म है, विपच्यमान कर्म है, वह कर्म है जो फल-काल को प्राप्त है। जो फल-कालप्राप्त कर्म है अर्थात् फल या विपाक से उत्पन्न होता है वह विपाकज' कहलाता है। फल दो विपाक भी कहते है क्योंकि यह विपक्ति है। अथवा 'विपाकज' का अर्थ है 'विपाकहेतु से जात' किन्तु यह नहीं कहना चाहिए कि 'हेतु' शब्द का लोप है । वास्तव में हेतु में प्रायः फल का उपचार होता है यथा प्रायः फल में हेतु का उपचार होता है : “यह ६ स्पर्शायतन पौराण कर्म है" (एकोत्तर, १४, ५, संगुत्त, २.६५, ४,१३२; नीचे २.२८) (२.पृ. २७१ देखिए) । [६९] २. औपचयिक-~अर्थात् जो आहार-विशेष (३.३९), संस्कार-विशेष (स्नानादि), स्वप्न-विशेष, समाधि-विशेष (४.६ सी) से उपचित होता है । एक मत के अनुसार ब्रह्मचर्य भी उपचय में हेतु है किन्तु वास्तव में ब्रह्मचर्य से अनुपात मात्र होता है। यह उपचय का कारण नहीं है। उपचय-सन्तान विपाक-सन्तान की आरक्षा है यथा प्राकार परिवृत कर रक्षा करता है। २. ३०१ देखिए; ३, विभाषा, ११८ के आरम्भ में, सिद्धि, १९० ] ३. नेप्यन्दिक अर्थात् निप्यन्द फल (२.५७) 'वह जो स्वकार्य-सदृश हेतु से उत्पन्न हुआ है।" (२) मन इन्द्रिय को वर्जित कर ५ इन्द्रिय या आध्यात्मिक धातु विपाकज और औपचयिक विपामजीपचयिकाः पंचाध्यात्म [विपाकजः। न शब्दो ऽप्रसिधा अप्टी नेष्यन्दिकविपाकजाः॥ २ विधान्य मा० ६९.१७] निपंचन इस प्रकार है--विपच्यत इति विपाकः । विपाक वह है जो परिपक्व होता है । दूसरा निर्वचन--विपाका विपरितः। व्याख्या ६९.३३] ऐसा प्रतीत होता है कि यह पादाचित् धर्मत्रात का मत है, १.४५ (नन्जियो १२८७) । ३