पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७३

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अभिधर्मकोश ३८ ए. केवल एक धातु द्रव्यवान् है। [व्या ७१.११] [७१] असंस्कृत का सारत्व होने से (सारत्वात् = अविनाशात्) वह द्रव्य है। असंस्कृत धर्मधातु (१.१५) में संगृहीत है । अतः धर्मधातु ही एक धातु है जो द्रव्यवान् है। ३८ वी . अन्तिम तीन धातु क्षणिक हैं।' अन्तिम तीन पातु मनोधातु, धर्मधातु, मनोविज्ञान-धातु हैं। दर्शनमार्ग (६.२५) के प्रथम क्षण के और इसलिए प्रथम अनास्सव क्षण के अर्थात् दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति के क्षण के धर्म-कलाप में यह तीन धातु सभागहेतुक (२.५२) नहीं है क्योंकि इष्ट आश्रय के सन्तान में किसी अनास्त्रव धर्म का अभी प्रादुर्भाव नहीं हुआ है जो दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति का 'सभागहेतु' हो। इसीलिए यह तीन धातु क्षणिक कहलाते हैं क्योंकि एक क्षण के लिए यह इस हेतु से निर्वर्तित नहीं होते अर्थात् अनैष्यन्दिक होते हैं। उक्त कलाप में क्षान्तिसंप्रयुक्त चित्त मनोधातु और मनोविज्ञानधातु है। इस चित्त के सहभू धर्म धर्मधातु हैं: अनास्रव संवर, (४.१३ सी) वेदना, संज्ञा, चेतना और अन्य चैत्त; प्राप्ति (२.३६) और संस्कृत लक्षण (२.४६) । एक प्रश्न का विचार करना है। जो पुद्गल पूर्व असमन्वागत था और अब चक्षुर्धातु समन्वागम का प्रतिलाभ करता है क्या वह चक्षुर्विज्ञानधातु के समन्वागम का भी प्रतिलाभ करता है ? जो पूर्व असमन्वागत था और अब चक्षुर्विज्ञान धातु के समागम का प्रतिलाभ करता है क्या वह चक्षुर्धातु के समागम का भी प्रतिलाम करता है ? [७२] ३८ सी-डी. चक्षुर्धातु और चक्षुर्विज्ञानधातु का लाभ पृथक् भी हो सकता है, एक साथ भी हो सकता है।' १. चक्षुर्धातु से असमन्वागत पुद्गल चक्षुर्विज्ञानधातु के समस्बागम के लाभ विना ही चक्षुर्धातु के समन्बागम का लाभ करता है : (ए) कामधातु का पुद्गल जिसकी इन्द्रियाँ कम से प्रतिलब्ध होती हैं (२.१४), क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय के प्रतिलाभ के पूर्व वह अपने अतीत (अन्तराभव ३.१४) और अनागत ('प्राप्ति' पर २.३६ वी) चक्षुर्विज्ञानधातु से समन्वागत होता है। (वी) जो पुद्गल आरूप्य धातु में मृत हो तीन ऊर्ध्व ध्यानों के लोकों में उपपपन्न होता है, क्योंकि वहाँ यद्यपि चक्षुर्धातु होता है तथापि चक्षुर्विज्ञानधातु का अभाव होता है (८.१३ ए-सी) । २. चक्षुर्विज्ञानधातु से असमन्वागत पुद्गल चक्षुर्धातु के समन्वागम का प्रतिलाभ किए बिना ही चक्षुर्विज्ञानधातु के समन्वागम का लाभ करता है : (ए) तीन ऊर्य ध्यान द्रच्यवानका व्या० ७१.११] १ क्षणिकाश्चरमास्त्रयः । धनुर्विज्ञानधातोः स्यात् पृथक लाभः सहापि च ।। (व्याख्या ७१.२८) विभाषा, १६२, १६, ८७, ७, धर्मवात निन्जियो १२८५], १.४८ सी.