पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७५

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६० अभिधर्मकोश ६ इन्द्रिय और ६ विज्ञान यह १२ धातु आध्यात्मिक हैं; विज्ञान के ६ आलम्बन अर्थात् रूपादि ६ वाह्य धातु हैं। किन्तु कोई आत्मा नहीं है। इसलिए आध्यात्मिक धातु और बाह्य धातु यह आस्याएं कैसे हैं ? [७४] चित्त अहंकार का सन्निश्रय है; चित्त को मिथ्याभाव से आत्मा करके ग्रह्ण करते हैं। अतः चित्त में आत्मा का उपचार होता है। यथा गाथा में उक्त है “सुदान्त आत्मा से पंडित स्वर्ग की प्राप्ति करता है "और भगवत् ने अन्यत्र कहा है "चित्त का दमन अच्छा है; सुदान्त चित्त सुखावह होता है "१। किन्तु इन्द्रिय और विज्ञान आत्म शब्द से उक्त चित्त के प्रत्यासन्न (अभ्यासन्न) हैं: वास्तव में वह उसके आश्रय हैं; इस लिए उन्हें 'आध्यात्मिक कहते हैं और रूप तथा विज्ञानधातु के अन्य आलम्बन जो विषयभाव से वर्तमान हैं 'बाह्य' कहलाते हैं। किन्तु क्या यह कह सकते हैं कि पड्विज्ञानधातु चित्त के आश्रय हैं ? वह चित्त के आश्रय तभी होते हैं जब निरुद्ध हो कर वह मनोधातुत्व को (१.१७)प्राप्त होते हैं। अतः वह आध्यात्मिक नहीं हैं। यह आक्षेप निःसार है। जब विज्ञानधातु निरुद्ध होकर चित्त के आश्रय होते हैं तब यही विज्ञानधातु हैं जो आश्रय होते हैं। अतः आश्रय होने के पूर्व यह आश्रय-लक्षण का अतिवर्तन नहीं करते । अत: इनके भविष्यदाश्रयभाव के कारण इनका आध्यात्मिकत्व है। यदि अन्यथा होता तो मनोधातु अतीतमात्र होता, वह अनागत और प्रत्युत्पन्न नहीं होता। किन्तु यह सुष्छु ज्ञात है कि १८ धातु तीन अध्व के होते हैं। पुनः यदि अनागत अथवा प्रत्युत्पन्न विज्ञानधातु का मनोधातुत्व नहीं है तो अतीत होने पर उसका यह लक्षण बताना अयुक्त है। क्योंकि अध्व धर्म के लक्षण का व्यभिचार नहीं होता (५.२५) पा, २१,१६, ३९, २)। १८ धातुओं में कितने सभाग हैं (नीचे पृ.७७ देखिए )? कितने तत्सभाग हैं ? [७५] ३९ वी-सी. धर्मसंज्ञक धातु सभाग है ।' विषय सभाग कहलाता है जब कि विज्ञान जिसका यह नियत विषय है वहाँ उत्पन्न होता है या उत्पत्तिधर्मी है। किन्तु कोई ऐसा धर्म नहीं है जहाँ अनन्त मनोविज्ञान जो उसके आलम्यन हैं वह बाह्य हैं; ३. सत्त्व की दृष्टि से भेद : सत्वाख्य धर्म आध्यात्मिक हो सकते हैं, अन्य वाह है। ५ मात्मना हि सुदान्तेन स्वर्ग प्राप्नोति पंडितः .. व्या० ७४.२७] चित्तस्य दमनं सायु चित्तं दान्तं सुखावहम् [व्या० ७४.३०] उदानवर्ग, २३ देखिए; मध्यमकवृत्ति, पू.३५४; धम्मपद, १६० पर्मसंजफः । सभागः पा० ७५.१५] प्रकरण, फोलियो १८ यो १५-१९ ए ४