पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश उत्पन्न हो या उत्पत्ति-धर्मी हो। सव आर्य इस चित्त का उत्पाद अवश्यमेव करते हैं:"सर्व धर्म अनात्म है" (७.१३ ए) । यह यथार्थ है कि इस चित्त का आलम्बन न स्वभाव-धर्म है, न इसके सहभू धर्म इसके आलम्बन हैं (सहभू. २.५० वी) किन्तु यह चित्त और इसके सहभू धर्म 'सर्व अनात्मम्' इस चित्त के द्वितीय क्षण के आलम्बन हैं। अतः सर्व धर्म दो चित्त-क्षण (७.१८ सी-डी) के आलम्बन होते हैं। अतः धर्मधातु जो मनोविज्ञान का नियत विषय है नित्य सभाग है। ३९ सी-डी . अन्य धातु तत्सभाग भी हैं।' 'अपि' शब्द प्रदर्शित करता है कि शेष सभाग और तत्समाग दोनों है। यह तत्सभाग कव होते हैं ? ३९ डी.जब वे अपना कर्म नहीं करते। इससे यह उक्त होता है कि जो अपना कर्म करता है वह सभाग है। १. जिस चक्षुर्धातु ने रूप देखा, जो रूप देखता है या जो रूप देखेगा वह सभाग कहलाता है-इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के बारे में अपने-अपने विषय और कारिन (पुरुपकार, २.५८) से कहना चाहिए। २. काश्मीर वैभाषिकों के अनुसार चक्षुरिन्द्रिय चार अवस्थाओं में तत्सभाग है जो चक्षुरिन्द्रिय बिना देखे निरुद्ध हुआ है, होता है, निरुद्ध होगा और अनुत्पत्ति-धर्मा (५.२४) [७६] चक्षुरिन्द्रिय । पाश्चात्यों के अनुसार अनुत्पत्तिधर्मा चक्षुरिन्द्रिय दो प्रकार का है-- चक्षुर्विज्ञान से संप्रयुक्त ( = संवद्ध), असम्प्रयुक्त । अन्य विज्ञानेन्द्रियों के लिए भी इसी प्रकार समझना चाहिए । मनोधातु तत्सभाग है जब यह उत्पत्ति-धर्मा नहीं है। वास्तव में जव यह उत्पन्न होता है तव नित्य सालम्वन होता है।' ३.जो रूप चक्षुरिन्द्रिय से देखे जा चुके हैं, देखे जा रहे हैं, देखे जावेंगे, वह सभाग हैं। जब वह विना देखे निरुद्ध हो गए हैं, निरुद्ध होते हैं या निरुद्ध होंगे और जब वह उत्पत्ति- २ तत्सभागोऽपि शेषो व्या ७५.२९ में 'तत्सभागाश्च शंषाः' पाठ है।] यो न स्वकर्मकृत् [व्या० ७६.३] १ विभाषा, ७१, ८. जो इन्द्रिय रूप देख चुका है, रूप देखता है या रूप देखेगा और तत्सभाग (अर्थात् वह इन्द्रिय जो इस इन्द्रिय के सदृश है) चक्षुर्धातु है । जो इन्द्रिय देख चुका है वह अतीत चक्षुर्घातु है; जो देखता है वह प्रत्युत्पन्न चक्षुर्धातु है, जो देखेगा वह अनागत चक्षु. र्धातु है । तत्सभाग के विषय में इस देशके आचार्य कहते हैं कि यह चार प्रकार का है। अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत, तत्सभाग चक्षु । यह वह चक्षुर्घातु है जो रूप को बिना देखें निरुद्ध हो गया है, निरुद्ध हो रहा है, निरुद्ध होगा। चतुर्थ प्रकार और बरलाना चाहिए । यह वह चक्षुर्धातु है जो सर्वथा उत्पन्न नहीं होगा। बहिर्देशक कहते हैं कि यह पांच प्रकार का है : अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत, जैसा पूर्वक्ति । इनके अतिरिक्त अनागत चक्षुर्धातु जो सर्वया उत्पन्न न होगा दो प्रकार का है : विज्ञान- संप्रयुक्त, विज्ञान से असंप्रयुक्त