पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश दर्शनादि कारित्र है; विषयधातु का कारित्र विज्ञान का विषय, आलम्बन होना है, दृष्टादि होना है। विज्ञानधातु का कारित्र विज्ञातृत्व है। जो धर्म भाग अर्थात् उन इन्द्रिय, विषय और विज्ञान के साथ (स-) वर्तमान हैं जो अपना कारित्र-भजन रखते हैं अथवा उन इन्द्रिय, विषय और विज्ञान के साथ वर्तमान हैं जो अन्योन्य- भजन करते हैं, सभाग कहलाते हैं। अथवा सभाग वह धर्म हैं जिनका समान कार्य स्पर्श है अर्थात् चक्षु, रूप, चक्षुर्विज्ञान आदि (३.२२) का सन्निपात !' जो असभाग हैं किन्तु इन सभागों के सदृश हैं वह 'तत्सभाग' हैं अर्थात् 'तत् (उस) के सभाग' अर्थात् सभाग के सभाग (सभाग-सभाग)। दश भावत्या हेयाः पंच चान्त्यास्त्रयस्त्रिधा । न दृष्टिहेयमक्लिष्ट न रूपं नाप्यषष्ठजम् ॥४०॥ कितने धातुओं का प्रहाण (हा, प्रहा, ५.२८, ६.१) सत्य-दर्शन से, दूसरे शब्दों में दर्शनमार्ग से या दर्शन से (६.२५ वी), हो सकता है ? कितनों का सत्य की भावना से, दूसरे शब्दों में भावना-मार्ग से या भावना से ? कितने धातुओं का प्रहाण नहीं होता अर्थात् अहेय हैं ? ४० ए-बी. १० और ५ भावना से हेय हैं; अन्तिम ३, तीन प्रकार के हैं। [७९] १.१० रूपीधातु, इन्द्रिय और विषय और ५ विज्ञानधातु भावनाहेय हैं । प्रहाण की दृष्टि से अन्तिम तीन धातुओं में, मनोवातु, धर्मधातु और मनोविज्ञानधातु में, तीन प्रकार के धर्म है: (ए) ८८ अनुशय (५.४), सहभू धर्मों के साथ -~चाहे यह सहभू संप्रयुक्त (२.२४) हों या विप्रयुक्त (२.४६, लक्षण और अनुलक्षण) ---उक्त अनुशय और उक्त सहभुओं की प्राप्ति (२.३६) के साथ, उक्त प्राप्तियों के अनुचर के साथ (अनुप्राप्ति और लक्षण), दर्शनहेय हैं। १ २ 3 भज्यत इति भाग:-भाग शब्द की व्युत्पत्ति कर्मणि प्रत्यय से करते हैं। व्या० ७७. जो चक्षु विना देखे निरुद्ध होता है वह उस चक्षु के सदृश है जो देखता है, इत्यादि । माध्यमिक (वृत्ति, पृ. ३२ और टिप्पणी जिसे शोधना चाहिए) इस वाद के एक अंश को लेते हैं : “परमार्थतः सभाग चक्षु रूप नहीं देखता क्योंकि यह इन्द्रिय है, यथा तत्सभाग"-न परमार्थतः सभागं चक्षुः पश्यति रूपाणि , चक्षुरिन्द्रियत्वात्, तद्यथा तत्सभागम् । दश भावनया हेयाः पंच चान्त्यास्त्रयस्त्रिधा। व्या० ७७.१६, १९ त्रयः के स्थान में त्रयं पाठ है।] विभाषा, १५१, ९-विभंग पृष्ठ १२, १६, ९७; धम्मसंगणि, १००२, १००७, १००८ में इसी प्रश्न पर विचार किया गया है। तीन प्रकार--दर्शनहेय, भावना- हेय, अहेय । विहानि और परिहाणि में विशेष है, ६.१७३. अनात्रव धमों (मार्गसंगृहीत धर्मों) का निसर्ग होता है किन्तु इनका दर्शन या भावना से प्रहाण नहीं होता। यह अप्रति- संख्यानिरोध, ८.२०९ के आलंबन हैं। शब्दानुक्रमणिका में अहेय शब्द देखिए। विभाषा, ३२ पृ० ३६४, कालम २, डाकुमेण्ट्स आफ अभिधर्म में (निःसरण पर) और सिद्धि ६६६ सिद्धि में विभाषा ३२ प. १६४, कालम २ है ।]