पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७९

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र अभिधर्मकोश (वी) शेष सानव धर्म भावनाहेय हैं : १. सहभू, प्राप्ति आदि के साथ १० अनुशम (५.५); २. कुशल सास्रव और अनिवृताव्याकृत (२..६६) संस्कार; ३. सासव सानुचर अविज्ञप्ति (४.१३)। (सी) अनास्लव धर्म अर्थात् असंस्कृत और भार्गसत्य अहेय हैं। २. आक्षेप-~~ वात्सीपुत्रीयों का मत है कि केवल ८८ अनुशय ही नहीं किन्तु अन्य धर्म भी दर्शनहेय है। (१) पृथग्जनत्व अनिवृताव्याकृत धर्म है : तुम उसे भावनाहेब धर्मो में रखते हो; (२) अपायसंवर्तनीय काय-वाक्-कर्म रूप है : तुम उसे भी दूसरे प्रकार में रखते हो। किन्तु पृथग्जनत्व और नियत आपायिक कर्म आर्यमार्ग-विरोधी है, दर्शनमार्ग-विरोधी हैं। अत: हमारे- अनुसार दोनों दर्शनहेय हैं । वात्सीपुत्रीयों के वाद का प्रतिषेध करने के लिए आचार्य संक्षेप में कहते हैं: ४० सी-डी. न अक्लिष्ट, न रूप, न अषष्ठज दर्शनहेय हैं। [८०] १. जो अक्लिष्ट है, जो न अकुशल है, न निवृताव्याकृत (२.६६) है, जो रूप है, उसका प्रहाण दर्शन से नहीं हो सकता। किन्तु पृथग्जनत्व क्लिष्ट नहीं है : जिस पुद्गल ने कुशल-मूल का समुच्छेद किया है (४.७९), जो पुद्गल वीतराग है वह पृथग्जनरल से समन्वागत हो सकता है। किन्तु काय-वाक्-कर्म रूप हैं। पृथग्जनत्व और काय-वाक्-कर्म को सत्य से विप्रतिपत्ति नहीं है क्योंकि प्रथम'१. फ्लेशों से क्लिष्ट नहीं है, २. विज्ञान नहीं है, अनालम्बक है। क्योंकि द्वितीय अनालम्बक है । अतः दोनों में से कोई भी दर्शनहेय नहीं है। पृथग्जनत्व दर्शनहेय होता तो दुःखे धर्मज्ञानक्षान्ति में पृथग्जनत्व का प्रसंग होता जो अयथार्थ है।' २. 'पठ' से मनोधातु समझना चाहिए। 'अषष्ठज' उसे कहते हैं जो षष्ठ इन्द्रिय से भिन्न - इन्द्रिय से उत्पन्न है अर्थात् जो चक्षुरादि पंचेन्द्रिय से उत्पन्न है। यहां चक्षुरादि विज्ञान इष्ट हैं। यह भी दर्शनहेय नहीं हैं। २ पुनः यदि चक्षुश्व धर्मधातोश्च प्रदेशो दृष्टिरपटधा। पंचविज्ञानसहजा धील दृष्टिरतोरणात् ॥४१॥ १८ धातुओं में कितने 'दृष्टि' हैं ? ५ २ पथगजनत्व पर २.४० सी ६.२६ ए, २८ सी-डी, सिद्धि ६३९ देखिए। विभाया, ४५, १ में बमुमिन, भदन्त और घोषक के विविध निर्देश । न वृष्टिहेयमक्लिप्टं न रूप नाप्यपष्ठजम् । च्या० ७८.७] २.१३, ४,११ ए-बी देखिए। प्रयम अपस्मा मानन्तय मार्ग को है। दूसरी अवस्था विमुक्ति मार्ग को है, वह मार्ग जिसमें पलेश विनष्ट होते हैं (६.२८)