पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८

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वसुवन्धु के कोश ग्रन्थ का भावनामय (चिन्तामयी, श्रुतिमयी, भावनामयी इन तीन प्रकार की प्रज्ञाओं में भावनामयी प्रज्ञा द्वारा) ऐसा स्नान कराती थी, जिससे शास्त्रार्थ-समर की रसहीनता (समर + भा+अरसम् भावनाभिपेकम्), उत्पन्न हो जाती थी ,अथवा जिससे युद्धों के गुरुतर भार की संभावना उत्पन्न हो जाती थी, अथवा शास्त्रार्थ रूपी युद्ध में प्रतिभा प्रदर्शन द्वारा जल-विरहित केवल भावनामय अभिषेक किया जाता था। इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि सातवीं शती के आरम्भ में लिखने वाले महाकवि वाण वसुबन्धु के कोश और दिङनाग घरा उसके प्रौढ़ शास्त्रार्ययुक्त मंडन की किंवदन्ती से परि- चित थे और उनके पाठक भी उनके उस अर्थ का स्वारस्य अनुभव कर सकते थे। इस उल्लेख का ऐतिहासिक महत्त्व जिस दूसरे कारण से हो जाता है वह कालिदास द्वारा मेघदूत में दिङनाग के स्थूल हस्तावलेपों का ऐसा ही संकेत है। हम सब इस पुराने साक्ष्य से परिचित हैं- दिङनागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान् । (मेघदूत १३१४) (मल्लिनाथ) दिडनागाचार्यस्य हस्तावलेपान् हस्तविन्यासपूर्वकाणि दूकणानि परिहरन् । अर्थात् दिङनाग आचार्य हस्तविन्यासपूर्वक शास्त्रार्य में हाथ फटकार कर जो अवलेप अर्थात् घमंड का अपराध या दूषण करते हैं, उसे दूर करते हुए जाना ! कालिदास का स्थूल हस्तावलेप और वाण का दर्यात् परामृशन् ... बाहुशिखरकोशस्य वाम: पाणिपल्लवः एक ही किंवदन्ती की ओर संकेत कर रहे हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वसुबन्धु और उनके शिष्य दिङनाग को ऐति- हासिक स्थिति का समय कालिदास के युग से सम्बन्वित हो जाता है। यह अनुश्रुति अत्यन्त पुष्ट है कि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन थे। जैसा फाउवालनर ने लिखा है- "भारतीय आधार पर आश्रित अनुश्रुति को हम विना भारी कारण के अमान्य नहीं ठहरा सकते; अन्यया ऐतिहासिक अनुसंधान के तलवों के नीचे की सारी मिट्टी ही खिसक जायगी। मेरी सम्मति में यहाँ प्रत्येक अनुश्रुति जब तक भीतरी साक्षी से असम्भाव्य सिद्ध न हो और उसके विरुद्ध गुरुतर तर्क या प्रमाण उपस्थित न हो, हमारे ऊहापोह में आधाररूप से मान्य होनी चाहिए।" (ऑन दी डेट आफ वसुबन्धु, पृ० ३६-३७) । यद्यपि फ्राउवालनर के दो वसुबन्धुओं का मत हमें स्वीकार्य नहीं है, तयापि असंग जिनके ज्येष्ठ भ्राता थे उन स्थविर वसुबन्यु का जो समय उन्होंने निश्चित किया है, अर्थात् चौथी शती में ३२०-४०० ई० तक वह हमारे ऊपर के प्रमाण से संगत बैठ जाता है, अर्थात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के राज्यकाल में ही वह वसुबन्यु हुए जिन्होंने अभिधर्म कोश की रचना की, और जिनके शिष्य दिङनाग अपने गुरु के महानन्य के मंडन के लिये शास्त्रार्यों की धूम मचाये रहते थे, जिसकी सूचना कालिदास और वाण दोनों को थी। वसुबन्यु का एक अन्य ग्रन्य कर्मसिद्धिप्रकरण है। मूल संस्कृत में यह अनुपलब्ध है, पर १. समरभारसंभावनाभिषेक का पदच्छेद कई प्रकारसे सम्भव है--(१)समर (शास्त्रार्थ रूपी युद्ध)+भा (प्रतिभा)+ अरसम् (नीरस) + भावना (विचार, भावनामयी प्रज्ञा)+ अभिषेकम् (२)समर+भार संभावना अभिषेकम् (वास्तविक मार पीट से रक्त द्वारा अभि- पेक को सम्भावना उत्पन्न हो जाती थी; (३) अथवा दिछ नाग समर (शास्त्रार्थ युद्ध) में अपनी प्रतिभा द्वारा (भा) विनाजल का (अरस) भावनामय अभिषेक वसुबन्यु के कोश को कराते थे।