पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८१

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1 अभिधर्मकोश १. विज्ञानवादी के अनुसार चक्षु नहीं देखता, चक्षुविज्ञान देखता है। वह कहता है कि “यदि चक्षु देखता है तो श्रोत्रविज्ञान या कायविज्ञान में व्यासक्तपुद्गल का चक्षु देखेगा (१.६ सी-डी)"। हम यह नहीं कहते कि सब चक्षु देखता है । चक्षु देखता है जब वह सभाग है (१.३९) अर्थात् जब वह चक्षुर्विज्ञानसमंगी है, चक्षुर्विज्ञान को सम्मुख करता है । किन्तु तब जो देखता है वह चक्षुराश्रित्त विज्ञान है। नहीं, क्योंकि कुडच या अन्य किसी व्यवधान से आवृत रूप दिखाई नहीं पड़ता। किन्तु [८३] विज्ञान अमूर्त है, अप्रतिष (१.२९ वी) है। अत: यदि चक्षुर्विज्ञान देखता होता तो वह व्यवधान से आवृत रूप भी देखता । विज्ञानवादी उत्तर देता है। आवृत रूप के प्रति चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न नहीं होता ; उनके प्रति उत्पन्न न होने से यह उनको नहीं देखता । किन्तु इन रूपों के प्रति यह उत्पन्न क्यों नहीं होता ? म वैभाषिकों के लिए जिनका पक्ष है कि चक्षु देखता है और जो मानते हैं कि चक्षु के सप्रतिध होने से व्यवहित रूप में चक्षु की वृत्ति का अभाव है यह बताना सुगम है कि चक्षुविज्ञान की अन्तरित रूप के प्रति उत्पत्ति क्यों नहीं होती : वास्तव में विज्ञान की प्रवृत्ति उसी एक विषय में होती है जिसमें उसके आश्रय की होती है । किन्तु यदि आपका मत है कि विज्ञान देखता है तो आप इसका कैसे व्याख्यान करते है कि व्यवहित रूप में विज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती? २. आचार्य विज्ञानवादी के पक्ष को लेकर कहते हैं और वैभाषिक के अन्तिम उत्तर का विसर्जन करते हैं। क्या आपका मत है कि चक्षुरिन्द्रिय प्राप्त विषय को देखता है जैसे कायेन्द्रिय स्प्रष्टव्य का करते हैं, पृ० ३०८ ("डास आम निष्ट डास मास डे सिख्तवारत जीत" पाठ है, न कि विभाषा, ९५, १. एक मत के अनुसार सव संस्कृत स्वभावतः 'दृष्टि' हैं । 'दृष्टि से पटु प्रचार का अर्थ लिया जाता है। सब संस्कृतों का यह स्वभाव है। दूसरों का कहना है कि क्लेशों के निरोध और अनुत्पाद का ज्ञान (क्षयानुत्पादज्ञान, ७.१) दृष्टि है। १३,१. धर्मात कहते हैं कि चक्षुविज्ञान रूप देखता है। घोषक कहते हैं कि चक्षुर्विज्ञान- संप्रयुक्त प्रज्ञा रूप देखती है। दाष्टॉन्तिक कहते हैं कि सामग्री रूप देखता है। वात्सीपुत्रीय कहते हैं कि केवल एक चक्षु रूप देखता है. का स्वभाव दर्शन होगा किन्तु ऐसा नहीं है : अतः यह मत सदोष है। यदि चक्षुर्विज्ञानसंप्र- ..यदि चक्षुर्विज्ञान रूप देखता है तो विज्ञान युक्त प्रज्ञा रूप देखती है तो श्रोत्रविज्ञान से संप्रयुक्त प्रज्ञा शब्द श्रवण करेगी, किन्तु प्रज्ञा का श्रवणस्वभाव नहीं है। अतः यह मत सदोष है। यदि 'सामग्री रूप देखती है तो रूप-दर्शन सदा होगा क्योंकि सामग्री का सदा सम्मुसोभाव है। यदि एक चक्षु , दो चक्षु नहीं, रूप देखता है तो काय के अंग एक ही समय में स्प्रष्टव्य का प्रतिसंवेदन नहीं करेंगे। यथा दो याहु में यद्यपि अन्तर है तथापि वह एक साय स्प्रष्टव्य का अनुभव कर सकते हैं और एक फायविज्ञान का उत्पाद कर सकते हैं। उसी प्रकार इसमें क्या आपत्ति है कि दो चक्षु पद्यपि एक दूसरे से दूर हैं तयापि वह एक साथ देखते हैं और एक चक्षुर्विज्ञान का उत्पाव करते हैं? .....