पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८२

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश अनुभव करता है ? (१.४३ सी-डी) इस पक्ष में मैं मानूंगा कि चक्षुरिन्द्रिय के सप्रतिघ होने से वह व्यवहित रूप का ग्रहण नहीं करता । किन्तु आपका मत है कि चक्षुरिन्द्रिय दूर से देखता । अतः आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि सप्रतिघ होने से यह व्यवहित रूप नहीं देखता। पुनः हम काच, अभ्रपटल, स्फटिक और जल से अन्तरित रूप कैसे देखते हैं ? -अतः मैं कहूँगा कि चक्षुर्विज्ञान देखता है ; यह आवृत रूपों के प्रति उत्पन्न होता है जहाँ आलोक में प्रतिवन्ध नहीं है; विपरीत अवस्था में यह नहीं उत्पन्न होता ।' ३. वैभाषिक सूत्र का प्रमाण देते हैं । सूत्र-वचन है कि "चक्षु से रूपों को देखकर"। अत: चक्षु देखता है, न कि चक्षुर्विज्ञान । [८४] हमारा उत्तर है कि सूत्र का अभिप्राय यह कहने का है कि "चक्षुरिन्द्रिय के आश्रय - से (तेन आश्रयेण), चक्षु को आश्रय बना (आश्रित्य), रूप देखकर" । वास्तव में यही सूत्र कहता है कि "मनस् से धर्मों को जान कर (विज्ञाय)" : किन्तु अनन्तरातीत मनस् (१.१७) धर्मों को नहीं जानता; मनोविज्ञान से धर्म जाना जाता है । अतः यदि सूत्र-वचन है "मनस् से" तो सूत्र को अभिसन्धि यह कहने की है : “मनोविज्ञान के आश्रय, मन-इन्द्रिय का आश्रय लेकर"। इसी प्रकार दर्शन और चक्षु के लिए समझना चाहिए। हम यह भी मान सकते हैं कि सूत्र आश्रय में, इन्द्रिय में, आश्रित विज्ञान के कर्म का उपचार करता है । यथा लोक में कहते हैं "मंच चिल्लाते हैं (मंचाः क्रोशन्ति)"। 'मंच' मंचस्थ पुरुष हैं। कहने का यह प्रकार प्रवचन में सामान्य है 1 सूत्र में पठित है कि "कान्त और अमनाप रूप चक्षु से विज्ञेय हैं।” किन्तु आपका यह मत नहीं है कि चक्षु देखता है । आप के अनुसार विज्ञान देखता है जिसका आश्रय चक्षु है । सूत्र (संयुक्त, ९,२०) यह भी कहता है कि "हे ब्राह्मण ! रूपों के दर्शन के लिए चक्षुरिन्द्रिय द्वार है।" यह आगम समर्थन करता है कि विज्ञान चक्षुद्वार से देखता है। आपका यह मत नहीं है कि 'द्वार' आख्या का अर्थ 'दर्शन' है क्योंकि यह कहना अयुक्त होगा कि "चक्षुरिन्द्रिय रूपों के दर्शन के लिए दर्शन है।" ४. वैभाषिक का आक्षेप–यदि चक्षुर्विज्ञान देखता है (पश्यति) तो वह कौन है जो जानता है (विजानाति) (१.४८ ए) ? दर्शन और विज्ञान इन दो क्रियाओं में क्या अन्तर है जिसके कारण एक धर्म एक ही समय में देख और जान न सके ? क्या यह नहीं कहा जाता कि एक प्रज्ञाविशेष (दर्शनामिका, ७. १) देखता है (पश्यति) और जानता है (प्रजानाति) ? [८५] इसी प्रकार एक विज्ञान, चक्षुर्विज्ञान, देखता और जानता है। दो नाम से एक ही क्रिया प्रजप्त है। यह भदन्त का वाद हैं (विभाषा, १३, ७)। चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्या ......३.३२ ढी में उद्धृत है [च्या० ८१.१३] । संयुक्त, १३, ४; विभंग, पृ० ३८१ मध्यमकवृत्ति, पृ० १३७; धम्मसंगणि, पृ० ५९७--महासांघिकों का यह तर्क हं, कथावत्यु, १८.९. १.इस वाक्य से तुलना कीजिए : तस्यैवं जानत एवं पश्यतः.... च्या० ८२.९] 9 २