पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८४

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश ८. काश्मीर वैभापिकों के अनुसार चक्षु देखता है, श्रोत्र सुनता है, घ्राण सूंघता है, जिह्वा रस लेती है, काय स्पर्श करता है, मनस् जानता है। उभाभ्यामपि चक्षुम्या पश्यति व्यक्तदर्शनात् । चक्षुःश्रोत्रमनोऽप्राप्तविषयं अयमन्यथा ॥४३॥ एक चक्षु से या दो चक्षु से रूप देखे जाते हैं ? ४३ ए-वो-दो चक्षु से भी रूप देखे जाते हैं क्योंकि दो से शुद्ध दर्शन होता है ।२ कोई नियम नहीं है : एक चक्षु से देखते हैं। दो चक्षु से भी देखते हैं। आभिधार्मिक कहते हैं : "दो चक्षु से भी दर्शन होता है; दो चक्षु जब विवृत हों तब दर्शन परिशुद्धतर होता है ।" पुनः जब एक चक्षु उन्मीलित है और दूसरा अर्धनिमीलित है तव दो चन्द्र के दर्शन होते हैं; न कि जब [८७] उन्मीलित चक्षु सर्वनिमीलित या अर्धनिमीलित होता है अथवा जव अर्धनिमी- लित चक्षु को सर्वोन्मीलित या सर्वनिमीलित करते हैं। बाश्रय के द्वित्व होने से यह न समझना चाहिए कि दो चक्षविज्ञान हैं क्योंकि रूप के समान विज्ञान रूपी नहीं है। अमूर्त होने से यह देशप्रतिष्ठित नहीं है। हमने कहा है कि चक्षु देखता है, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, काय प्रत्येक अपने अपने विषय का ग्रहण करता है और मनस् जानता है। क्या यह इन्द्रिय अपने विषय को प्राप्त होते हैं [क्या यह अपने विषय के देश को प्राप्त होते हैं] ? ४३ सी-डी. चक्षु, श्रोत्र, मनस् अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करते हैं । अन्य तीन इन्द्रियों के लिए अन्यथा है।" 3 --- यं च सामं जातं तं च अतिधावन्ति, यं च लोके सच्चसंमतं तं च अतिवावन्ति ।--इति- वृत्तक, ४९. २ उमाभ्यामपि चक्षुभ्यां दर्शनम् शुद्धदर्शनात् । व्या० ८३.१०] ज्ञानप्रस्यान, १,८ के अनुसार विभाषा, १३, २. वात्सीपुत्रीयों के विरुद्ध-ऊपर १.४२ की टिप्पणी के अन्त में देखो। वसुबन्धु का तर्क, पंचवस्तुक, १.१०. १ [अप्राप्तार्थान्यक्षिमनःश्रोत्राणि] त्रयमन्यथा। अत्यसालिनी, ६२९ से तुलना कीजिए। विभाषा, १३ पृ.६३, कालम, २, पंक्ति १३--कहते हैं कि दो अर्थ में प्राप्तविपयत्य होता है या तो इसलिए कि यह विषयवत् गृहीत होता है या 'उपलब्ध होता है, अथवा इसलिए कि विषय और इन्द्रिय का निरन्तरत्व है। प्रथम अर्थ में ६ इन्द्रियां विषय को प्राप्त होती हैं । दूसरे अर्थ में केवल तीन इन्द्रिय, घ्राण, जिह्वा और कार्यन्द्रिय, विषय को प्राप्त होते हैं; इसके विपरीत तीन इन्द्रिय, चक्षु, श्रोत्र और मनस्, अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करते हैं। चक्षु आलोक के कारण रूप का ग्रहण करता है। जव रूप फा इन्द्रिय-सान्निध्य होता है तब यह बालोक में प्रतिबन्ध होता है, तव चक्षु नहीं देखता। आकाश या आकाशयातु के कारण श्रीन शब्द का ग्रहण करता है। जब शब्द इन्द्रिय के समीप होता है तब यह आकाशधातु में प्रतिबन्ध नहीं होता : श्रोत्र सुनता है. .प्राणेन्द्रिय वायु के कारण ग्रहण करता है। .....