पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८५

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) अभिधर्मकोश (१) १. चक्षु दूर से रूप देखता है। यह आंख के अंजन को नहीं देखता । श्रोत्र दूर के शब्द को सुनता है। मनस् के अरूपी होने से वह अपने विषय के देश को प्राप्त नहीं होता। [८८] २. यदि चक्षु और श्रोत्र का प्राप्तविषयत्व हो तो मनुष्यों में ध्यायियों के दिव्य चक्षु और श्रोत्र न हों जैसे उनके दिव्य प्राण नहीं होता (७.४२) । आक्षेप---यदि चक्षु अप्राप्तविषय का दर्शन करता है तो वह अतिदूरस्थ या तिर- स्कृत रूपों को क्यों नहीं देखता? उत्तर---अयस्कान्त सव अप्राप्त लोहे का क्यों नहीं आकर्षण करता? पुनः प्राप्तविषयत्व में भी समान कठिनाई है : चक्षु संप्राप्त अंजन, शलाकादि अर्थों को क्यों नहीं देखता ? अथवा हम यह कहें कि चक्षु और घ्राण-जिह्वन्द्रिय के लिए सामान्य नियम है : प्राण प्राप्त गन्ध फा ही ग्रहण करता है किन्तु वह सहभू गन्ध का ग्रहण नहीं करता; इसी प्रकार चक्षु दूरस्य रूप को देखता है किन्तु सब दूरस्थ रूप को नहीं देखता। कुछ आचार्यों के अनुसार क्योंकि कर्णाभ्यन्तर के शब्द सुन पड़ते हैं इसलिए यह परिणाम निकाला जा सकता है कि श्रोत्र प्राप्त शब्द सुनता है जैसे यह दूरस्थ शब्द भी सुनता है। ३. अन्य तीन इन्द्रिय, धाण, जिह्वा, काय, प्राप्त विषय का ग्रहण करते हैं। प्राण के लिए ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गन्ध-ग्रहण के लिए उच्छ्वास आवश्यक है। (२) 'प्राप्त' का क्या अर्थ समझना चाहिए ? जब कहते हैं कि इन्द्रिय स्वविषय को 'प्राप्त होता है, 'प्राप्तविषय होकर' अपने विषय को जानता है तो इस कहने का क्या अभिः प्राय है ? 'प्राप्त होना' निरन्तरत्व में उत्पन्न होना' है, अविसंयोग की अवस्था में होना है।' विषय जो प्रतिक्षण पुनरुत्पन्न होता है (४.२ सी-डी), करता। अधातु के कारण जिद्देग्नियः पृथिवी के कारण कायेन्द्रिय; मनस्कार के कारण मन फा-पाओ का कहना है कि चन्द्र का रूप चक्षु से निरन्तरत्व के लिए चन्द्र का त्याग नहीं । आर्यवेव, शतक, २८८ से तुलना कीजिए। १ वैशेषिकों का आक्षेप। २ संघभद्र इस बाद का प्रतिषेध करते हैं; टाओ थाइ इसे साम्मितीयों का बताते हैं। का पाओ इसे विभाषा के फुछ आचार्यों का बताते हैं। ३ संघभद्र इस वाद का विचार करते हैं। यहां और नीचे (भदन्त का लक्षण, पृ० ९१) हमारे तिब्बती भाषान्तर का निरन्तर का अन बाद वच्छा-प है। किन्तु तिब्बती सिद्धान्त जिनका वर्णन सालीफ (१० ३०७ ) किया है भदन्त के निरन्तर को अन्य मादियों के निरन्तर के विपक्ष में रखते हैं । बोधिचर्यापत्तार, पृ० ५१६ के अनुसार इन्द्रिय और विषय का न सान्तर है, न निरन्तर। (सव्यवधान)