पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९

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१२ - इसके चीनी और तिब्बती अनुवाद प्राप्त हैं। प्रो० ई० लामोत ने तिब्बती अनुवाद और उसका फॅच अनुवाद प्रकाशित किया था (अशल्स, १९३६) । जापान के प्रो० सुसूमु यामागुची ने उसका एक विशद व्याख्यामय अध्ययन क्योतो से १९५१ में प्रकाशित किया। इस ग्रन्थ से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वसुवन्धु का निजी दार्शनिक अभिमत क्या था। कभी तो उन्हें हीनयान से सम्बन्धित माना जाता है और कभी महायान से। फ्राउवालनर ने प्रथम वसुबन्धु को आरम्भ में सर्वास्तिवादी और बाद में असंग के प्रभाव से महायान में दीक्षित माना है, एवं दूसरे वसुबन्धु (४००-४८०) को सर्वास्तिवादी सौत्रान्तिक मानते हुए अभिधर्मकोश का रचयिता कल्पित किया है । वस्तुतः यामागुची के कर्मसिद्धि प्रकरण पर किये हुए अध्ययन से यह प्रश्न पुनः उठ जाता है कि अभिधर्मकोश, एवं विंशतिका त्रिंशिका आदि ग्रन्थों के रचयिता वसुबन्धु एक ही थे अथवा विभिन्न जैसा परमार्थ के जीवन-चरित से विदित होता है । अभिधर्मकोश की रचना के बाद वसु- वन्धु महायान दर्शन के पूर्ण प्रभाव में आ गये और तब उन्होंने विंशतिका विशिका शास्त्र की रचना को। इन दोनों के बीच की कड़ी कर्मसिद्धिप्रकरण है। दार्शनिक वसुबन्धु का दिग्गज मस्तिष्क स्वतन्त्र-चिन्तन में सक्षम था, वे प्रगतिशील बने रहे, विचारों का एक चौखटा उन्हें सदा के लिये जकड़कर नहीं रख सका। वे आरम्भ में सौत्रान्तिक थे। उसी नय के अनुसार अभिधर्म कोश की रचना हुई। वैभाषिक मत से उनका जहाँ-जहाँ मतभेद हुआ उसे संघभद्र ने अपने अभिधर्म न्यायानुसार शास्त्र में प्रदर्शित किया है। वसुबन्धु के ज्येष्ठ माता असंग योगाचार दर्शन के प्रति- पादक थे। या तो उन्होंने स्वयं उस नय की स्थापना की, या जैसा अब अधिकांश विद्वान् मानते है, उनके गुरु मैत्रेयनाथ योगाचार-दर्शन के प्रादुर्भावकर्ता थे। योगाचार सिद्धात सर्वास्तिवाद दर्शन के द्रव्यसत् दृष्टिकोण का निराकरण करके विज्ञानवाद का समर्थन करता है, अर्थात् विश्व भूत भौतिक पदार्थ या पंचस्कन्ध की स्वतन्त्र आलम्बन पर आश्रित सत्ता नहीं है, वह केवल विज्ञान या विज्ञप्तिमात्र है। योगाचार के इस दृष्टिकोण को कादम्बरी में "निरालम्बना बौद्ध- बुद्धि' अर्थात् सब प्रकार के सत्तामूलक आलम्वनों से समतिक्रान्त धर्मवाली दृष्टि कहा गया है। असंग के इरा दृष्टिकोण ने वसुबन्धु पर भी प्रभाव डाला। उनका विकासशील मानस प्रवर्धमान चिन्तन का अभ्यासी था। वे अकुण्ठित भाव से नये विचारों की समीक्षा और स्वागत करते थे। जैसा अपर किंवदन्ती में उल्लेख है अपने प्रतिपक्षी आलोचक संघभद्र के प्रति भी उन्होंने हृदय की उदारता का परिचय दिया और सीमान्तिक नय की आलोचना करने वाले संघभद्रीय शास्त्र को न्यायानुशारशास्त्र की सम्मानपूर्ण आख्या प्रदान की। इस प्रकार की विचारसरणि, उदारता 8. $0 ESTEET (E. Lamotte, Le Traite de l' Arte de Vasubandhu (वसुबन्धुकृत कमसिद्धिप्रकरण), Melanges Chinois et Bouddhiques; iv, 1935.36 Bruxelles, 1936. Susumu Yamaguchi, Thc Karmasiddhi-prakarana of Vasulandliu, Illustration of the original text based on Sumatišila's Commentary, प्रो० लामोत की भूमिका सहित, प्योती, १९५१, देखिए ईस्ट ऐंड वेस्ट पविफा, अप्रैल १९५५, पृ० ३१-३३, ग्बीसेप मोरचीनी का लेख, दो स्प्रिचुएल स्ट्रगिल आव यसपन्य ऍट हिद्ध कर्मसिद्धिप्रकरण।