पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९१

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- अभिधर्मकोश ७६ होता है किन्तु जिसका समनन्तर-प्रत्ययभाव होता है उसका आश्रयभाव नहीं होताः अतीत चैतसिक धर्मधातु आश्रय नहीं हैं तद्विकारविकारित्वादाश्रयाश्चक्षुरादयः । अतोऽसाधारणत्वाच्च विज्ञान तैनिरुच्यते ॥४५॥ चक्षुर्विज्ञान चक्षु और रूप पर आश्रित है। विषय को वर्जित कर इन्द्रिय को क्यों विज्ञान का आश्रय अवधारित करते हैं ? [९६] ४५ ए-वी. विज्ञान का आश्रय इन्द्रिय है क्योंकि इन्द्रिय के विकार से विज्ञान में विकार होता है।' जव चक्षु का अनुग्रह होता है (अंजनादि प्रयोग), जब चक्षु का रेणु आदि से उपघात होता है, जब वह पटु होता है, जब वह मन्द होता है तब विज्ञान में उस विकार का अनुविधान होता है, वह सुख-दुःखोत्पाद सहगत होता है, वह यथाक्रम पटु या मन्द होता है। इसके विपरीत विज्ञान की अवस्था पर विषय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः इन्द्रिय, न कि विषय, विज्ञान का आश्रय है (२.२ ए-वी)। विज्ञान विषय को जानता है। उसे इन्द्रिय के नाम से क्यों संजित करते हैंः चक्षुर्विज्ञान .....मनोविज्ञान विषय के नाम से क्यों प्रशप्त नहीं करते : रूपविज्ञान.....धर्मविज्ञान ? ४५ सी-डी. अतः और इसलिए भी क्योंकि यह 'असाधारण' है इन्द्रिय के नाम पर विज्ञान का नाम पड़ता है। इस हेतु से कि इन्द्रिय उसका आश्रय है विज्ञान का निर्देश इन्द्रिय से करते हैं। क्योंकि इन्द्रिय 'असाधारण' है : एक पुद्गल का चक्षु केवल उस पुद्गल के चक्षुर्विज्ञान मात्र का आश्रय है । इसके विपरीत रूप साधारण है क्योंकि रूप का ग्रहण चक्षुर्विज्ञान और मनोविज्ञान से होता है, एक पुद्गल से और अन्य पुद्गल से होता है ।-श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और कान्द्रिय तथा शब्द, गन्ध, रस, स्प्रप्टव्य इन विषयों के लिए भी यही योजना होनी चाहिए। हम निष्कर्ष निकालते है कि विज्ञान का नाम इन्द्रिय से निर्दिष्ट होता है क्योंकि इन्द्रिय उसका आश्रय है, क्योंकि इन्द्रिय असाधारण है। विषय के लिए ऐसा नहीं है । लोक में कहते हैं : 'भेरी-शब्द', दण्ड-शब्द नहीं कहते; 'यवांकुर' कहते हैं, क्षेत्रांकुर नहीं कहते । [१७] सत्त्व कामयातु या प्रथम ध्यानादि भूमि में उत्पन्न होता है । वह उस भूमि का होता है और उस का काय अमुक भूमिका होता है। वह पक्षु से रूप देखता है। प्रश्न है कि याप, गा, रूस और विज्ञान एक ही भूमि के होते है या भिन्न भूमि के । तविकारविकारित्वादाश्रयश्चक्षुरादयः। [२० ८६.३२] विभाषा, ७१, १४ के अनुसार। २ अतोऽसाधारणत्वाच्च [तविज्ञानम् .. ..]। पाख्या ८७.१८]