पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९३

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७८ मनः॥४७॥ अभिधर्मकोश का है।' कय, चक्षु, रूप पंचभूमिक हैं : कामधातु, ४ ध्यान । चक्षुर्विज्ञान द्विभूमिक है: कामधातु और प्रथम ध्यान (८.१३ ए-सी)। जिस चक्षु का उपयोग एक सत्त्व करता है वह उस सत्त्व के काय की भूमि का हो सकता है अर्थात् उस भूमि का हो सकता है जहां यह सत्त्व उपपन्न होता है । यह ऊर्श्वभूमि का हो सकता है ; यह अधर भूमि का नहीं होता। रूप और विज्ञान, इन्द्रिय के सम्बन्ध में, एक ही भूमि के होते हैं या अधर भूमि के होते हैं; ऊर्ध्व भूमि के कभी नहीं होते। अर्श्वभूमिक रूप अधर भूमि के चक्षु से नहीं देखा जा सकता। ऊर्ध्वभूमिक चक्षुर्विज्ञान अधरभूमिक चक्षु से उत्पन्न नहीं हो सकता। रूप, चक्षुर्विज्ञान केसिम्बन्ध में, सम, ऊर्ध्व और अधर होता है। [९९] रूप और चक्षुर्विज्ञान काय के सम्बन्ध में वैसे ही हैं जैसा रूप विज्ञान के सम्बन्ध में है अर्थात् सम, ऊर्ध्व, अधर हैं। ४७ ए. श्रोत्र का भी ऐसा ही है।' तया श्रोत्रं त्रयाणां तु सर्वमेव स्वभूमिकम्। कायविज्ञानमधरस्वभूम्यनियत श्रोनेन्द्रिय काय से अधर नहीं है, शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से ऊर्ध्व नहीं है और न श्रोत्र- विज्ञान । शब्द विज्ञान के सम्बन्ध में, शब्द तथा विज्ञान काय के सम्बन्ध में, सर्व प्रकार के होते हैं: ४७ ए-वी. तीन इन्द्रियों के लिए सव स्वभूमिक हैं। घ्राण, जिह्वा और कायेन्द्रिय के लिए काय, इन्द्रिय, विषय और विज्ञान केवल स्वभूमिक है अर्थात् उस भूमि के हैं जहां सत्व उपपन्न हुआ है। इस सामान्य नियम के बताने के पश्चात् आचार्य एक अपवाद सूचित करते हैं। ४७ सी-डी. कायविज्ञान स्वभूमिक या अधरभूमिक होता है । काय, कामधातु और स्पष्टव्य सदा उस भूमि के होते हैं जहां सत्त्व उपपन्न होता है। किन्तु कायविज्ञान (१) स्वभूमिक होता है जब सत्व कामधातु में या प्रथम ध्यान में उपपन्न होता है; (२) अधरभूमिका (प्रथम ध्यान) होता है जब सत्त्व द्वितीय ध्यान में या ऊर्ध्व उपपन्न होता है। ४७ डी. मन नियमित नहीं है। १ न कायस्याधरं चक्षुरूवं रूपं न चक्षुषः। विज्ञानं चास्य रूपं तु कायस्पोभे च सर्वतः व्या० ८८.७] ७.१०७, ८.१५४ देखिए। तथा श्रोत्रम् [व्या० ८९.११] २ प्रयाणां तु सर्वमेव स्वभूमिकम् । फापवितानं अधरं स्वं चापि । अनिपतं मनः। व्या० ८९.३४] । १