पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९८

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(४.१३ वी), फलप्राप्ति (६.५१), वैराग्य (६.४५ सी) नहीं होते (२.१९ सी-डी अभिधर्मकोश सुनकर पुद्गल विषम-परिहार करता है; (३) चक्षुर्विज्ञान और श्रोत्रविज्ञान इन दो विज्ञानों के तथा उनके संप्रयोग चैतसिक धर्मों के उत्पाद में अधिपति हैं; (४) असाधारणकारणत्व में अधिपति हैं : रूपदर्शन, शब्दश्रवण। प्राण, जिह्वा और कायेन्द्रिय का (१) पूर्ववत् आत्मभावशोभा में आधिपत्य है; (२) कवडीकार-आहार (३. ३९) के परिभोग से परिरक्षण में आधिपत्य है; (३) तीन विज्ञानों के उत्पाद में आधिपत्य है; (४) असाधारणकारणत्व में आधिपत्य है : गन्ध-धाण, रसों का आस्वादन, स्पष्टव्यों का स्पर्श २. चार इन्द्रिय अर्थात् पुरुषेन्द्रिय, स्त्रीन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय और मन-इन्द्रिय इनमें से प्रत्येक का आधिपत्य दो अर्थों में है (विभाषा, १४७, १०)। (१) पुरुषेन्द्रिय और स्त्रीन्द्रिय का आधिपत्य (१), सत्वभेद में है। इन दो इन्द्रियों के कारण सत्वों में स्त्री-पुरुष-भेद होता है; (२) सत्वविकल्प-भेद में है: इन दो इन्द्रियों के कारण स्त्री-पुरुष में संस्थान, स्वर और आचार का अन्यथात्व होता है।' अन्य आचार्य र इस व्याख्यान को स्वीकार नहीं करते। वास्तव में रूप-धातु के देवों में जो पुरुषेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय में समन्वागत नहीं होते (१.३०) सत्त्व-विकल्प-भेद होता है और इन भेदों के कारण सत्त्व स्त्री-पुरुष में विभक्त होते हैं। [१०५] अतः यदि पुरुषेन्द्रिय और स्त्रीन्द्रिय का आधिपत्य दो दृष्टि से है तो वह संक्लेश और व्यवदान में अधिपति हैं: वास्तव में स्त्री-पुरुषेन्द्रिय से वियुक्त-विकल, षण्ड, पण्डक और उभयव्यंजनों के (१) सांक्लेशिक धर्म नहीं होते : असंबर (४.१३ वी), आनन्तर्य (४.१०३), कुशलमूल-समुच्छेद (४.८०) और (२) वैयवदानिक धर्म यया संवर देखिए )। (२) जीवितेन्द्रिय का आधिपत्य (१) निकायसभाग (२.४२ ए) के सम्बन्ध में है अर्थात् निकायसभाग की उत्पत्ति में है; (२) निकायसभाग के संधारण में है अर्थात् जन्म से मृत्युपर्यन्त उसके अवस्थान में है। (३) मन-इन्द्रिय का आधिपत्य (१) पुनर्भव-सम्बन्ध में है जैसा कि सूत्र में उक्त है: "जव गर्चव में, अन्तराभव के सत्व में, इन दो चित्तों में से एक चित्त, रागचित्त या द्वेषचित, उत्पन्न होता है (३.१५); (२) वशीभावानुवर्तन में है: जैसा निम्न गाथा में उक्त है कि लोक और धर्म चित्त के वशीभूत हैं:- १ चुद्धघोप अस्थसालिनी (६४१) में बताते हैं कि यालकों के खेल बालिकाओं के खेल से भिन्न हैं इत्यादि । विभाषा, १४२ के अन्त में; अत्यसालिनी, ३२१-"स्त्रियों की आकृति स्त्रीन्द्रिय नहीं है। स्त्रीन्द्रिय के कारण आकृति का उत्पाद प्रवृत्ति-काल में होता है।" ध्यात्या के अनुसार पूर्वाचार्य [व्या० ९४.१३]