पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९९

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय . "चित्त से लोक उपनीत होता है, चित्त से परिकृष्ट होता है। सब धर्म इस एक धर्म चित्त के वशानुवर्ती हैं।"१ ३. पाँच वेदनेन्द्रिय अर्थात् सुख, दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य, उपेक्षा (२.७), यह ५ वेदना और श्रद्धादि ८ इन्द्रिय अर्थात् श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा (२.२४) और तीन अनास्त्रव इन्द्रिय (२.१०)-यह यथाक्रम संक्लेश और व्यवदान में अधिपति हैं। [१०६] वेदनेन्द्रिय का संक्लेश में आधिपत्य है क्योंकि रागादि अनुशय वेदनाओं में व्यासक्त होते हैं, वहाँ अनुशयन करते हैं (तदनुशयित्वात्) 1 [व्या ९५.२४ में तदनुशायित्वात् पाठ है ] । श्रद्धा तथा अन्य सात इन्द्रियों का आधिपत्य व्यवदान में है क्योंकि इनके कारण विशुद्धि का लाभ होता है । अन्य आचार्यों के अनुसार (विभाषा, १४२, ११)वेदनेन्द्रियों का आधिपत्य व्यवदान में भी है क्योंकि सूत्र में कहा हैः सुखितस्य चित्तं समाधीयते [व्या ९६.१], दुःखोपनिषच्छ्रद्धा, पणनष्क्रम्याश्रिताः सौमनस्यादयः ४ [व्या ९६.१, ४] । यह वैभाषिकों का व्याख्यान है। १ होते हैं।" चित्तेन नीयते लोकश्चित्तेन परिकृष्यते । एकधर्मस्य चित्तस्य सर्वे धर्मा वशानुगाः ॥ [व्या० ९५.२२] संयुत्त, १.३९. असंग (सूत्रालंकार, १८.८३, पृ. १५१, लेवी द्वारा संपादित) संस्कारों पर चित्त के आधिपत्य को प्रदर्शित करते हैं: चित्तेनायं लोको नीयते चित्तेन परिकृष्यते चित्तस्योत्पन्नस्य वशे वर्तते (अंगुत्तर, २.१७७) । मनस् संक्लेश और व्यवदान में अधिपति है, विभाषा १४२, पृ० ७३१, ७३२ (भवन्त कुशवर्मन्); सिद्धि, २१४॥ 'शुआन चाङ्गः "क्योंकि सर्व अनालय धर्म उनके पश्चात् उत्पन्न और विपुलता को प्राप्त २"जो सुखावेदना का प्रतिसंवेदन करता है उसका चित्त समाहित होता है।" विमुक्त्यायतन सत्र से उद्धृत; यह व्याख्या, पृ. ५६ (पैट्रोग्राड संस्करण) [व्या० ५४.७] (१.२७) में उद्धृत है। महाव्युत्पत्ति, ८१. 3 "श्रद्धा दुःखहेतुका है," संयुत्त, २.३१---'उपनिषद्' शब्द के इस मर्य के लिए (=हेतु) नीचे २.४९ (हेतु और प्रत्यय पर टिप्पणी) देखिए, अंगुत्तर, ४.३५१ = सुत्तनिपात (द्वयतानुपस्सनासत्त) (...का उपनिसा सवनाय), सूत्रालंकार, ११.९ (योगोपनियद् =योगहेतुक)-'तुलना' 'संयोग' के अर्थ में पाणिनि, १.४, ७९, वजच्छेदिका, ३५, १०, ४२, ७ और हानले मैनुस्क्रिप्ट रिमेन्स, १. पृ. १९२ (उपनिषां न क्षमते), सुखावती व्यूह, ३१, ९, महाव्युत्पत्ति, २२३, १५–'उपांश के अर्थ में यशोमित्र (२.४९ पर) दोघ, २.२५९ का उल्लेख करते हैं (सूर्योपनिषदो देवाः-सुरियस्सूपनिस्सा देवा) : उपनि पच्छन्दस्तु कदाचित् उपांशी कदाचित् प्रामुल्ये तद्यथा सूर्योपनिषदो देवा इत्युपांशुप्रयोग उपनिषत्प्रयोग इति (ई० लाएमान, जेड डी एम जी० ६२, पृ. १०१ के अनुसार उपनिया- उपनिस्सा=ग्रण्डलाने, नाहे, जिससे विशेषण उपनिस्स है)-मिनाएव, जापिस्की,२.३, २७७ देखिए; बोगिहारा, जैड डी एम जी० ५८, ४५४ (दानोपनियता शोलोपनिपा... प्रया) और मसंग को बोधिसत्यभूमि, पृ. २१; एस. लेवी, सूत्रालंकार, ११.९ पर 'सूत्र कहता है: चक्षुविज्ञेयानि रूपाणि प्रतीत्योत्सद्यते सोमनत्यं नष्क्रन्याश्रितम् ।... मनः ४