पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८०
अयोध्या का इतिहास


धृष्ट—इसके वंश में धार्ष्टक हुये जिन्होंने वाह्लीक[१] में अपना राज्य जमाया।

नारिष्यन्त—इसके विषय में मत भेद है। अनेक पुराणों में इसके बेटे शक कहलाते हैं। श्री मद्भागवत् के अनुसार इसीसे अग्निवेषीय ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई।

पृषध्न या (पृषघ्न)—इसने अपने गुरु च्यवन की एक गाय मारी, इससे पतित हो गया था।

शर्य्याति—इसको कहीं कहीं शर्याति भी कहते हैं। इसके पुत्र आवर्त से आवर्त राजवंश चला। शर्य्याति की बेटी सुकन्या भार्गव च्यवन को ब्याही थी। आवर्त की राजधानी कुशस्थली थी जो पीछे द्वारका (द्वारावती) के नाम से प्रसिद्ध हई। यह वंश बहुत दिनों तक नहीं चला। विष्णुपुराण अंश ४ अध्याय २ में लिखा है कि पुण्यजन नाम राक्षसों ने कुशस्थली नष्ट कर दी और आवर्त वंशवाले वहाँ से भागकर अनेक देशों में जा बसे। हैहय वंशियों में भी एक वर्ग शर्यातों का था। इस वंश का अंतिम राजा रैवत था जिसकी बेटी रेवती बलराम को ब्याही गई।

वेण—इसका नाम मत्स्यपुराण में कुशनाभ है, और कहीं प्रांशु भी है। इसका कुछ और विवरण नहीं मिलता।

(२) इक्ष्वाकु—मनु का सब से बड़ा बेटा। पुराणों में लिखा है कि इक्ष्वाकु के सौ बेटे थे, जिनमें विकुक्षि, निमि और दंड प्रधान थे। सौ बेटों में से शकुनि-प्रमुख, पचास भाइयों ने उत्तरापथ में राज्य स्थापित किये और यशाति प्रधान अड़तालीस दक्षिणापथ के राजा हुये।

विकुक्षि अयोध्या के सिंहासन पर बैठा, निमि ने मिथिलाराज स्थापन किया और उससे विदेह (जनक) वंश चला।


  1. वाह्लीक आजकल बलख़ के नाम से प्रसिद्ध है।