पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८२
अयोध्या का इतिहास


(४) ककुत्स्थ—शशाद का पुत्र परंजय हुआ। एक बार देवासुर संग्राम में इसने इन्द्ररूपी बैल के ककुत् (डील) पर बैठकर असुरों को परास्त किया; तबसे यह ककुत्स्थ कहलाया।[१]


  1. यह पौराणिक कथा है। पहाड़ पर अब तक मनुष्य के कन्धे पर सवार होकर शिकार खेलते हैं। किसी कारण से इन्द्र के कन्धे पर सवार होकर बैरी को मारने की घात लगी हो तो पीछे इन्द्र का बैल बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
    काशीनागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १० अङ्क १ व २ में राय कृष्णदास जी ने ककुत्स्थ शब्द की व्याख्या यों की है:—
    "वेदों में इंद्र को राष्ट्र का अधिष्ठात्री देवता माना है"।
    वैदिक साहित्य के उन मंत्रों अथवा स्थलों में जिनका संबंध राजशास्त्र से है इस बात का चार बार संकेत है। इसी से राजा के अभिषेक को ऐंद्र महाभिषेक कहते थे। (ऐरेत्तय ८,१५)।
    पुराणों में भी राज्य ऐन्द्रपद कहा जाता है और राज्य करने के लिये जब राजा का वरण किया जाता था तो यह मंत्र पढ़ा जाता था,

    त्वाविशो पृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पंच देवीः।
    वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रमस्व ततो न उग्रो विभजा वसिन॥

    (अथर्ववेद ३, ४, २)

    अर्थात—तुम्हें विश् (=जनता राष्ट्र) राज्य करने के लिये वरण करें (चुनें)। ये पाँच देदीप्यमान दिशाऐँ तुम्हें राज्य के लिये वरण करें। राष्ट्र के ककुद (डील पर) (अर्थात् ऊँचे स्थान पर, 'आला मुक़ाम' पर) बैठो और ऊर्जस्विता पूर्वक विभव का वितरण करो।

    ककुदं सर्व भूतानां धनस्थो नात्र संशयः।
    महाभारत, शान्तिपर्व ८९, ३०।
    इक्ष्वाकु वंश्यः ककुंद नृपाणाम्,

    (रघुवंश ६, ७, १।)

    अस्तु यह 'राष्ट्रस्य ककुदि' पद हमारे बड़े काम का है क्योंकि इससे ककुत्स्थ शब्द का प्राकृत अर्थ लगा जाता है। ऐक्ष्वाकों का जब से राष्ट्र (= उसके अधिष्ठातृ देवता इन्द्र) का अधिपति होने के लिये राज्य पर बैठने के लिये उसके ककुद पर सवार होने के लिये (मिलाइए हिन्दी मुहाविरा 'सिर पर सवार होना') वरण हुआ तब से वे ककुत्स्थ पद से अभिहित हुये। और उन्हीं के वंशधर काकुत्स्य कहे जाने लगे।