महाभारत में लिखा है कि मान्धाता ने गन्धार देश के चन्द्रवंशी राजा को मारा था। यह राजा द्रुह्यकुल का अङ्गार था। पञ्जाब पर मान्धाता का अधिकार हो जाने के कारण कान्यकुब्ज और पौरव क्या आणव भी उसका लोहा मान गये थे।
मान्धाता नाम की विचित्र व्याख्या विष्णु पुराण में दी हुई है। युवनाश्व के कोई पुत्र न था। इससे वह दुखी होकर मुनियों के आश्रम में रहता था। कुछ दिन बीतने पर मुनियों ने दया करके युवनाश्व की पुत्रप्राप्ति के लिये यज्ञ किया। वह यज्ञ आधी रात को पूरा हुआ। मुनि लोग यज्ञ का मंत्रयुक्त जल-कलस वेदी के बीच में रखकर सो गये। इतने में युवनाश्व प्यासा होकर वहीं पहुँचा। उसने मुनियों को तो जगाया नहीं परन्तु मंत्रयुक्त जल पीलिया। यह जल युवनाश्व की रानी के पीने के लिये था। इससे जब मुनि लोग जागे तो पूछने लगे कि इस जल को किसने पिया। राजा ने कहा मैंने इसे अनजाने पी लिया है। मुनि बोले यह तुमने क्या किया यह जल तो तुम्हारी रानी के लिये था।
जल के प्रभाव से युवनाश्व ही के गर्भ रह गया और पूरे दिन होने पर उसकी दाहिनी कोख फाड़कर बालक निकला और राजा न मरा। लड़का तो हो गया अब यह पलै कैसे? तब इन्द्र' देव कहने लगे 'हम इसकी धाय का काम करेंगे (माँ धास्यति) और उन्होंने अपनी आदेश की उँगली बालक के मुँह में डाल दी। बालक उस उँगली में से अमृत चूसकर चट पट सयाना हो गया। हम समझते हैं कि मान्धातृ नाम की उत्पत्ति सार्थक करने के लिये यह कथा गढ़ी गई है। नगर और राजसी ठाट बाट निरंतर भोग विलास से जब सन्तान न हुई तो बन में जाकर रहने से स्वाभाविकता कुछ आ जाती है। इसी उपाय से दिलीप ने रघु ऐसा पुत्र पाया था।
महाभारत में यह भी लिखा है कि मान्धाता के राज्य में पृथ्वी धन धान्य से भरी पुरी थी। उसके यज्ञ मंडपों से सारी पृथ्वी व्याप्त थी।