सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८६
अयोध्या का इतिहास

ऐसी दशा में मुझे क्या करना चाहिये यही सोच रहा हूँ।" मुनि समझ गये कि हमको इसी रीति से उत्तर दिया जाता है क्योंकि बुड्‌ढे मनुष्य को स्त्रियाँ कब चाहेंगी न कि कन्या! और राजा से कहने लगे "अच्छा तो है, आप अपनी कुल की रीति कीजिये और महल के कंचुकी के साथ हमें अपनी कन्याओं के पास भेज दीजिये। कोई कन्या हमको पसन्द करे तो उसका हमारे साथ विवाह कर दीजिये, नहीं तो हमको बुढ़ापे में इस वृथा उद्योग से क्या काम।" मान्धाता मुनि के शाप के डर से मान गये और प्रतीहारों के साथ मुनि को कन्या-महल में भेज दिया। वहां पहुँचते ही मुनि ने अपने योगबल से ऐसी मोहनी मूर्ति धारण करली कि जब प्रतीहारों ने कन्याओं को सूचना दी कि "तुम्हारे पिता ने इन मुनि जी को तुम्हारे पास इसलिये भेजा है कि यदि इन्हें कोई कन्या अपना पति बरै तो हम उसको इनके साथ ब्याह देंगे "क्योंकि हम इनसे ऐसी प्रतिज्ञा कर चुके हैं" तो सारी कन्यायें आपस में लड़ने लगीं और कहने लगी" मैंने इनको बरा, मैंने इनको बरा, तुम सब हट जाओ मैंने इनको सबसे पहले बर लिया।" एक बोली "यह मेरे ही योग्य बर है," दूसरी ने कहा "जैसे घर में घुसे वैसे ही मैंने इनको बरा, तुम सब व्यर्थ झगड़ा करती हो।" प्रतीहार ने यह चरित्र देखकर राजा से कहा और अपनी बात के धनी राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी पचासों बेटियां मुनि को ब्याह दीं।

मुनि उनको लेकर अपने आश्रम में आये और अपने योगबल से विश्वकर्मा को बुलाकर पचास महल बनवाये जिनमें प्रत्येक के साथ उपवन और सुन्दर पक्षियों से भरे जलाशय थे। फिर नन्द नाम निधि को आज्ञा दी कि सारे महलों को वस्तु रत्नादि सुख की सामग्री से भर दो। राजकन्यायें उनमें सुख से रहने लगीं और प्रत्येक के साथ पचास रूप धारण करके मुनि रहते थे।

एन दिन राजा मान्धाता को यह चिन्ता हुई कि मेरी बेटियां सुखी हैं या दुखी और मुनि के आश्रम को गये। वहां देखते क्या हैं कि