बना कर घर से निकाल दिया। कुलगुरु वसिष्ठ सब जानते थे, परन्तु राजा से कुछ न बोले और सत्यव्रत सदा केलिये अयोध्या छोड़ कर श्वपचों के बीच में झोपड़ी बना कर रहने लगा। परन्तु वसिष्ठ से जलता रहा क्योंकि वसिष्ट जानते थे कि राजकुमार का अपराध ऐसा धोर नहीं था जो उसे ऐसा दंड दिया जाता और राजा को समझा बुझा कर उसे बुला लेते। परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वसिष्ठ ने जानबूझ कर मौन साधा। राजा भी पुत्रवियोग से दुखी हो कर बन को चला गया और वसिष्ठ ने कोशलराज और रनवास तक अपने शासन में रक्खा। वसिष्ठ के सहायक ब्राह्मण ही थे। जिससे विदित होता है कि क्षत्रियों या सभासदों का उनसे मेल न था। राज पुरोहित के हाथ में चला गया। यह समय इक्ष्वाकुवंशियों के लिये बड़े संकट का था। इसके बाद बारह वर्ष तक अनावृष्टि हुई। उस समय विश्वामित्र अपने स्त्री, बच्चे कोशल देश के एक तपोवन में छोड़ कर सागरानूप में तपस्या करने चले गये थे जिससे उन्हें ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाय। यह भी कहा जाता है कि विश्वामित्र की स्त्री ने अकाल में अपने बचों के प्राण बचाने के लिये अपने दूसरे बेटे गालव को बेंच डालना स्वीकार कर लिया। सत्यव्रत उनके पास पहुंचा और लड़के को लेकर उसका भरण पोषण करने लगा। बच्चे के पालन पोषण में उसके दो प्रयोजन थे, एक बच्चे पर दया, दूसरे विश्वामित्र को प्रसन्न करना। दुखी सत्यव्रत के लिये विश्वामित्र के अनुग्रह का पात्र बनना अत्यन्त उपयोगी था, क्योंकि एक तो विश्वा-मित्र कान्यकुब्ज के राजा थे, दूसरे ब्राह्मण बन रहे थे। इसी विचार से सत्यव्रत ने विश्वामित्र के कुटुम्ब का पालन अपने सिर लिया और शिकार करके उनको भोजन देता और उनकी और अपनी योग्यता के अनुसार उनका आदर करता था; क्योंकि बाप के बन को चले जाने पर वह राजपद का अधिकारी होगया था। जब अकाल ने प्रचंड रूप धारण किया तो सत्यव्रत ने अपने और विश्वामित्र के कुटुम्ब के पालन
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