करने को वसिष्ठ का एक पशु मारडाला। इसपर वसिष्ठ ने क्रुद्ध होकर उसे तीन पापों का अपराधी बताकर उसका त्रिशंकु नाम रख दिया।
बारह वर्ष बीतने पर विश्वामित्र मुनि होकर लौटे और सत्यव्रत से कहा कि वर मांगो। विश्वामित्र ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और वसिष्ठ के विरोध की उपेक्षा करके यज्ञ किया। इससे प्रकट है कि वसिष्ट को सेना से या जनता से कोई सहायता न मिली यद्यपि इतने दिनों शासन की बाग उन्हीं के हाथ में थी और ज्यों ही सत्यव्रत के अधिकार के समर्थन के लिये विश्वामित्र ने जो राजा भी थे और ब्राह्मणत्व भी प्राप्त कर चुके थे, उठ खड़े हुये वसिष्ठ का बल नष्ट हो गया। वसिष्ठ के हाथ से राज तो जाता ही रहा राजा की पुरोहिताई भी गई। अब बदला लेने के लिये उन्होंने कहा कि विश्वामित्र ब्राह्मण हुये ही नहीं परन्तु अन्त में विश्वामित्र ही की जीत रही।
(३१) त्रिशंकु—त्रिशंकु का चरित्र वाल्मीकीय रामायण वालकण्ड सर्गः ५७, ६० में दिया हुआ है जिसका सारांश यह है; इक्ष्वाकुवंशी राजा त्रिशंकु की यह अभिलाषा हुई कि हमको सदेह देवताओं की परमगति मिले। उसने अपना विचार वसिष्ठ से कहा। वसिष्ठ ने कहा कि यह हमारे बस की बात नहीं। यह उत्तर पाकर त्रिशंकु दक्षिण को चला गया जहाँ वसिष्ट के बेटे तप कर रहे थे और उनसे अपनी मनोकामना कही। वसिष्ठ पुत्रों ने कहा कि जब तुमसे कुलगुरु ने कह दिया कि यह नहीं होतुम हमारे पास क्यों आये हो। इसपर रुष्ट होकर त्रिशंकु ने कहा कि तुम नहीं करते तो हम दूसरे के पास जाते हैं। राजा की ऐसी बातें सुनकर ऋषिपुत्रों ने उसे शाप दिया कि तुम चाण्डाल हो जाओ। इस दशा में वह विश्वामित्र के पास गया जिसके कुटुम्ब का उसने आपत्काल में भरण पोषण किया था। विश्वामित्र ने उसपर दया की और कहा कि हम तुम्हारे लिये यज्ञ करेंगे और सब ऋषियों को निमंत्रण दिया। वसिष्ठ-पुत्र न आये और उन्हें विश्वामित्र ने शाप