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अयोध्या का इतिहास

रहा और यह ठहरा कि जब रोहित सोलह बरस का हो जाय और क्षत्रियों की सजावट से सज जाय तो उसका बलिदान हो। इससे प्रत्यक्ष है कि किसी पुजारी ने वरुण के नाम से इस आग्रह के साथ रोहित की बलि मांगी थी और यह भी कोई न मानेगा कि राजा इतने दिनों वसिष्ठ से पूछे बिना टाल मटोल करता रहा। इससे यह अनुमान होता है कि वसिष्ठ का इसमें स्वार्थ था। नहीं तो क्या कारण है कि वरुण को मनाने का न कोई प्रयत्न किया गया न राजा को बचाने का और वरुण के पुजारी की इस मांग का समर्थन होता रहा कि रोहित का बध किया जाय।

जब रोहित सोलह बरस का हुआ और क्षत्रियों की सजधज से सजा तो राजा ने अपनी प्रतिज्ञा उसे सुनाई। रोहित ने न माना और बन को चला गया। उसके जाने पर राजा बीमार पड़ गया। रोहित ने सुना तो बरस बीतने पर अपने पिता को देखने आया परन्तु फिर समझा बुझा कर बन को लौटा दिया गया। यह चरित कई बरस तक होता रहा, और छठे साल फिर रोहित बन को लौट गया। ऐसी सलाह कभी मित्रभाव से नहीं दी जा सकती। एक राजकुमार को जो अयोध्या में सब तरह के सुख में पला था और अपने बाप का इकलौता बेटा था, इस तरह से घर से निकलवा देना और उसके संकट कटने का कोई प्रतीकार न करना उसको चिढ़ाना न था तो क्या था? बहकानेवाला देवराज इन्द्र कहा जाता है परन्तु देवराज वसिष्ठ ही का नाम हो सकता है। वसिष्ठ ने त्रिशंकु के बनवास में बारह बरस राज किया था अब फिर राज करना चाहते थे। रोहित मार डाला जाता या सदा बनवास भोगता दोनों का फल एक ही था। बरन इस बार वसिष्ठ का पक्ष प्रबल था क्योंकि बेचारे रोहित की दशा सत्यव्रत की दशा से बुरी थी। सत्यव्रत को केवल देश निकाला दिया गया था, रोहित के तो प्राण ही देवता को समर्पित हो चुके थे। छठे या सातवें बरस फिर रोहित बन को चला गया। वहाँ उसने देखा कि अजीगत अपनी स्त्री और तीन पुत्रों के साथ भूखों मर