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अयोध्या का इतिहास

गयीं, ये तीसरे पुरुष साक्षात भगवान थे। भगवान ने साक्षात् श्रीमती को अन्तर्द्वान कर दिया। इससे दोनों मुनियों को बड़ा झोध हुआ। वे कहने लगे "अम्बरीष ने माया रच कर हम लोगों को धोखा दिया। अतएव अम्बरीष, तुम अन्धकार से घिर जाओगे। तुम अपने शरीर को भी नहीं देख सकोगे।" अम्बरीष की रक्षा के लिये विष्णु का सुदर्शनचक्र उपस्थित हुआ, विष्णुचक्र अन्धकार को दूर कर मुनियों के पीछे दौड़ा। मुनि चारों ओर घूमते फिरे परन्तु विष्णुचक्र से रक्षा पाने का कोई उपाय उन्हें नहीं सूझा। अन्त में विष्णु के समीप उपस्थित हो कर, उन्होंने क्षमा प्रार्थना की। तब विष्णु ने सुदर्शन को निवृत्त किया। उन दोनों मुनियों ने प्रतिज्ञा की कि हम लोग कभी विवाह न करेंगे।[१]

५०-ऋतुपर्ण—निषध के राजा नल ने बाहुक बनकर इसी के यहाँ रथ हाँकने की नौकरी की थी। ऋतुपर्ण ने जुये का खेलना नल को सिखाया जिससे उसने अपना हारा राज-पाट सब फिर अपने भाई से ले लिया और उससे घोड़ा हाँकना सीखा।

५३-मित्रसह या कल्माषद—इस राजा के इतिहास का कुछ अंश अवंद माहात्म्य में दिया हुआ है, जिसका संक्षेप हमने अपने अंग्रेजी हिस्ट्री ऑफ़ सिरोहीराज (History of Sirohi Raj) में दिया है। यहाँ फिर वसिष्ठ जी आ जाते हैं। कल्माषद एक दिन शिकार खेल रहा था जब उससे वसिष्ठ के बेटे शक्तृ से भेंट हुई। राजा ने शक्तृ से कहा कि तुम हमारे आगे से हट जाओ। शक्त ने क्रुद्ध हो कर राजा को शाप दिया कि तू राक्षस हो जा। राक्षस होते ही कल्माषद शक्स और उसके भाइयों को खा गया। विष्णु पुराण की कथा इसके कुछ भिन्न है।

  1. यही कथा गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में विश्वमोहिनी स्वयंवर के रूप से वर्णन की है।
    + महाभारत में यह कथा बड़े विस्तार के साथ लिखी है पर वा. रा. में कुछ भेद करके दी हुई है। (आदि पर्व १७६)।