का दावा छोड़ दिया और अपना विवाह तक न किया जिससे कोई और दावादार न खड़ा हो जाय।
यद्यपि महाकवि कालिदास ने नहीं लिखा परन्तु महाभारत में ऐसी ही शर्त शकुन्तला ने भी दुष्यन्त के साथ की थी।
पीछे देवासुर संग्राम में और राजाओं के साथ महाराज दशरथ इन्द्र की सहायता काे गये थे और कैकेयी को भी अपने साथ लेते गये थे। यह लड़ाई दण्डकवन में शम्बरासुर के वैजयन्तम नगर में हुई थी। शम्बरासुर बड़ा मायावी था। ऐसा भारी संग्राम हुआ कि राक्षसों ने सोते हुये पुरुषों को भी घायल कर दिया और घायलों को मार डाला। महाराज दशरथ भी असुरों के अखों से घायल होकर मूर्छित हो गये थे। उस समय कैकेयी उनको समर-भूमि से हटा ले गयी और उनकी संवा शुश्रूषा की। एक दूसरी लड़ाई में महाराज दशरथ फिर घायल हो गये थे और शीत से व्याकुल थे वहाँ भी कैकेयी ने उनके प्राण बचाय थे। इन दोनों कार्यों से सन्तुष्ट होकर राजा ने कैकयी का दो वर दिये थे। कैकेयी ने उत्तर दिया कि दोनों वर हमारे श्राप थाती की भाँति रखिये जब प्रयोजन होगा माँग लूँगी।
कौशल्या से श्रीरामचन्द्र जी का जन्म हुआ। सुमित्रा के दो बेटे लक्ष्मण और शत्रुन थे और कैकयी के एक लड़का भरत हुआ। जब लड़के सयान हुये और महाराज दशरथ ने सर्वसम्मति से ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामचन्द्र काे युबराज बनाना चाहा तो रानी कैकेयी ने दोनों बरों के आधार पर अपने बेटे भरत के लिये राज तो मांगा ही, श्रीगमचन्द्र काे चौदह वर्ष का बनवास दिला दिया। उस समय भरत अपने नानिहाल में थे। श्रीरामचन्द्रजी का विवाह मिथिला के राजा जनक-वंशी सीरध्वज की बेटी श्री सीता जी के साथ हुआ था। उनके भाई लक्ष्मण ने भी कहा कि हम साथ चलेंगे। सब को समझा बुझा कर श्रीरामचन्द्र जी, सीताजी और लक्ष्मण के साथ वन को चले गये।