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आठवाँ अध्याय।
अयोध्या और जैन-धर्म।

आदि पुराण जैन-धर्म का बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ है।[१] इसमें लिखा है कि विश्व की कर्मभूमि में अयोध्या पहिला नगर है। इसके सूत्रधार इन्द्रदेव थे और इसे देवताओं ने बनाया था। पहिले मनुष्य की जितनी आवश्यकतायें थीं उन्हें कल्पवृक्ष पूरी किया करता था। परन्तु जब कल्प-वृक्ष लुप्त हो गया तो देवपुरी के टक्कर की अयोध्या पुरी पृथ्वी पर बनाई गई।

अध्याय १ में हमने दो और जैन-ग्रन्थों से अयोध्या की महिमा का उल्लेख किया है और मूल संस्कृत वर्णन पूरा-पूरा-उपसंहार में दिया हुआ है। इतनी बड़ाई तो महर्षि वाल्मीकि ने भी नहीं की।

आदि पुराण के अनुसार अयोध्या के पहिले राजा ऋषभदेव थे जिनको आदिनाथ भी कहते हैं। यही पहिले तीर्थकर भी थे। ऋषभदेष जी के पुत्र भरत चक्रवर्ती हुये जिनसे यह देश भारतवर्ष या भरतखण्ड कहलाता है। इस पर हमने अपने विचार अध्याय ७ में लिखे हैं।

आदिनाथ को लेकर २४ तीर्थकर हुये। जैन-लोगों का विश्वास है कि सब तीर्थंकर काल-क्रम से अयोध्या में जन्म लेते और यहीं राज्य करते हैं, केवल पाँच ही तीर्थो का यहां अन्तिम कल्प में जन्म लेना एक अनोखी बात हुई है।


  1. यह ग्रन्थ विक्रम संवत की आठवीं शताब्दी में लिखा गया था और सं॰ १९७३ में छपा। इसके, रचयिता जिगसेनाचार्य थे। थोड़े दिन हुये प्रसिद्ध विद्वान् मि॰ चंपत राय जैन ने इसका अंगरेज़ी अनुवाद भी छपाया है उसका नाम Founder of Jainism है।