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अयोध्या और बौद्धमत


साकेत के विषय में फ़ाहियान लिखता है[१] कि दक्षिण के फाटक से निकल कर सड़क की पूर्व ओर वह स्थान है, जहां बुद्धदेव ने अपनी दतून गाड़ दी थी। इस दतून से सात आठ फुट ऊँचा पेड़ उगा जो न घटा न बढ़ा। पिसाेकिया के विषय में यही कथा हुआन च्वांग ने लिखी है। वह कहता है कि राजधानी के दक्षिण और सड़क की बाईं ओर (अर्थात् पूर्व जैसा कि फ़ाहियान कहता है) कुछ पूजा के योग्य वस्तुओं में एक विचित्र पेड़ छः सात पुट ऊँचा था जो न घटता था न बढ़ता था। यही बुद्धदेव की दतून का प्रसिद्ध बृक्ष था।

आजकल भी अयोध्या से फैज़ाबाद को चलें तो हनुमानगढ़ी से कुछ आगे चल कर सड़क की बाई और एक तलाव है जिसे दतून कुंड कहते हैं। जनता का विश्वास है और अयोध्या माहात्म्य में भी लिखा है कि इसी कुण्ड के किनारे बैठकर श्रीरामचन्द्र जी दतून कुल्ला किया करते थे। पर विचारने से यह अनुमान किया जाता है कि यह कुण्ड या तो उस स्थान पर है जहां पर बुद्धदेव की दतून गाड़ी गई थी, या उसी के पास एक तलाब बनाया गया था जिसके विषय में भक्तों की यह भावना थी कि गौतम जी जब अयोध्या में रहते थे तो इसी कुंड के जल से आचमन करते थे। पेड़ सूख गया परन्तु तलाव बुद्धदेव के निवास का स्मारक अब तक विद्यमान है। दक्षिण का फाटक हनुमान गढ़ी के निकट होगा और गढ़ी कदाचित् दक्षिण का बुर्ज हो तो आश्चर्य नहीं। हनुमानगढ़ी से सरयू तट एक मील से कुछ अधिक है। परन्तु नदी की धारा बहुत बदला करती है। और सम्भव है कि जब चीनी यात्री यहाँ आया था तो नदी और उत्तर बहती रही हो। हमारी याद में नदी ने बस्ती और गोंडा जिलों की हजारों बीघा धरती काट दी है और कई मील दरिया बरार अयोध्या


  1. उपसंहार।