ओर तक जाते और राज-कर्मचारी इधर-उधर फिरा करते थे। इन्हीं राष्ट्रीय प्रबन्धों से परिव्राजकों की संस्था की उन्नति हुई। कोशल राज से पहिले परिव्राजकों का होना पाया नहीं जाता और इसमें सन्देह नहीं कि इन्हीं परिव्राजकों ने सारे देश में एक राष्ट्र-भाषा के साहित्य का प्रचार किया जो कोशलराज की छत्रछाया में उत्तरोत्तर उन्नति पाता रहा।
यह साधारण भाषा एक बातचीत की भाषा थी। इसका आधार राजधानी श्रावस्ती के आस-पास की बोली थी। इसी को कोशलराज के कर्मचारी बोलते थे। व्यापारी और पढ़े-लिखे सभ्य लोग केवल कोशलराज ही में नहीं वरन् पूर्व से पश्चिम और पटने से दिल्ली तक और उत्तर दक्षिण श्रावस्ती से उज्जैन तक सब की यही बोली थी। परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिये कि राजधानी श्रावस्ती उठ जाने पर भी साकेत उत्तर भारत के बड़े पाँच नगरों में गिना जाता था। शेष चार, काशी, श्रावस्ती, कौशाम्बी और चंपा थे।
बुद्धदेव ने अयोध्या में रह कर क्या-क्या काम किये इसका पूरा ब्यौरा हमको नहीं मिला परन्तु इतना तो निश्चित है कि अञ्जन बाग में बौद्धमत के बहुत से सूत्र बतलाये गये थे। बुद्धिष्ट इण्डिया (Buddhist India) में अवदान का प्रमाण देकर यह लिखा है कि अञ्जन बुद्धदेव के नाना थे। इनके नाम का बाग अयोध्या में कैसे बना यह जानना कठिन है।
अब हम प्रसेनजित के पूर्व पुरुषों पर विचार करेंगे। महाभारत के पीछे जो सूर्यवंशी राजा हुये उनमें प्रसेनजित सत्ताईसवाँ है। बौद्धमत के प्रन्थों में प्रसेनजित के पिता का नाम महाकोशल है। परन्तु महाकोशल का अर्थ है बड़ा कोशल। इससे हमें कोई विशेष लाभ नहीं होता। प्रसेनजित बहुत अच्छा राजा था और उसके राज में जितने धर्मावलम्बी थे सब पर बराबर अनुग्रह करता था और जब इन नये धर्म के प्रचार के आरम्भ ही में उसने विशेष रूप से अपने को बौद्धधर्म का अनुयायी