बताया तो उसके ऐसे भाव और भी पुष्ट हो गये। यह भी जानने योग्यहै कि जब सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा को यह आज्ञा दी थी कि अपने पड़ोसी के धर्म को बुरा न कहें तो उसने भारतीय आर्यों की इस सहनशीलता को और भी बढ़ा कर दिखा दिया । यही कारण है जो अयोध्या में ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म दोनों साथ-साथ निभते रहे। पर कोशल ही को यह श्रेय प्राप्त हुआ कि इसका पहिला राजा था जिसने भगवान् बुद्ध ही से उनके धर्म की दीक्षा ली। यह राजा प्रसेनजित था। हम राकहिल के बुद्धदेव के जीवन-चरित से [१] प्रसेनजित का जीवनचरित उद्धृत करते हैं। प्रसेनजित श्रावस्ती का राजा अरनेमि ब्रह्मदत्त का बेटा था और उसका जन्म उसी समय हुश्रा था जब बुद्धदेव ने अवतार लिया था। वह बड़ा शक्तिशाली राजा था और उसके पास बहुत बड़ी सेना थी। उसके दो रानियाँ थीं। एक वार्षिका जो मगध-राज बिम्बिसार की बहिन थी और दूसरी कपिलवस्तु के शाक्य महानामा की बेटी मल्लिका थी, जो अपनी चतुराई और अद्भुत स्पर्श के लिये प्रसिद्ध थी। दोनों के एक एक पुत्र हुआ वर्षिका का बेटा जेत और मल्लिका का विरूधक था। श्रावस्ती का एक धनी व्यापारी सुदत्त राजगृह में जाकर एक ऐसे सज्जन के यहाँ ठहरा जिसने बुद्धदेव को भोजन के लिये नेवता दिया था। सुदत्त बुद्ध जी का नाम सुनकर उनसे मिलने के लिये जिस आम के बारा में उनका डेरा था वहां गया और उनका चेला हो गया। उसने बुद्धदेव से श्रावस्ती पाने के लिये कहा। श्रावस्ती में कोई बिहार न था। इस लिये बुद्ध जी के लिये उसने एक बिहार बनाना निश्चय किया। बिहार बनाने के लिये जेत के बाग में एक जगह ठीक हुई। जेत ने इसका बहुत मूल्य मांगा। उसने इतनी मोहरें माँगी जितनी उस धरती पर बिछ सकें। सुदत्त मान गया और मोहरें बिछने लगीं। परन्तु मोहरें
- ↑ Rockhill's Life of Buddha.