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अयोध्या का इतिहास

सारी जगह बिछ न चुकी थीं कि जेत ने सोचा जो जगह बची है, वह बुद्ध जी के भेंट कर दी जाय और उसने उस जगह पर एक दालान बनवा कर संघ को दे दिया। तब से उस जगह का नाम जेतबन पड़ गया। प्रसेनजित यहीं पर बुद्धदेव के दर्शन को आया था और कुमार-दृष्टान्त-सूत्र नामक उनका व्याख्यान सुनकर चौद्ध हो गया। उसके थोड़े दिनों के पीछे उसने कपिलवस्तु के शाक्य राजा शुद्धोधन के पास कहला भेजा "हे राजा, बधाई है तुम्हारे पुत्र ने अमृत प्राप्त कर लिया है, और उससे मनुष्य मात्र को तृप्त कर रहा है।" शुद्धोधन ने बुद्ध जी को कई बार बुला भेजा। जब न्यग्रोद्धाराम बन चुका तो बुद्ध जी वहाँ गये और केवल राजा ही को नहीं वरन अपने पुत्र और स्त्री को भी बौद्ध-धर्म की दीक्षा दी।

इसी बीच में मगध के राजा बिम्बिसार ने भी दीक्षा लेली। उनकी रानी वासवी विदेह घराने की कन्या थी। उसके एक पुत्र अजातशत्रु था। ऐसा जान पड़ता था कि बुद्ध के विरोधी देवदत्त ने जिसने अपना एक नया अलग पन्थ निकाला था अजातशत्रु को जब वह सयाना हुआ तो यह पट्टी पढ़ाई कि अपने बाप को मार कर राज्य ले लो। उसके पिता बिम्बिसार ने उसको संतुष्ट करने के लिये उसको बहुत सा राज्य दिया पर उसका जी न भरा। तब राजा ने राजगृह भी दे डाला केवल कोश अपने अधीन रक्खा। किन्तु देवदत्त ने अजातशत्रु से कहा कि राजा वही है जिसके पास कोश हो। तब अजातशत्रु की बातों पर राजा ने कोश भी दे दिया। केवल इतनी प्रार्थना की कि इस दुष्ट देवदत्त का साथ छोड़ दो। इस पर क्रुद्ध होकर अजातशत्रु ने अपने पिता को वन्दी-गृह में डाल दिया जिससे वह भूखों मर जाय। पर वैदेही रानी को वहाँ जाने की आज्ञा थी और वह वहाँ एक कटोरे में खाना ले जाती थी। जब कारागार के नौकरों से राजा को यह मालूम हुआ तो उसने हुक्म दिया कि यदि रानी