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अयोध्या और बौद्धमत

दर्शन करके लौटे तो उनको बिदित हुआ कि दीर्घाचार्य ने धोखा दिया और वह पैदल राजगृह की ओर चले। यहाँ उनकी दोनों रानियाँ, वार्षिका और मल्लिका मिली। जान पड़ता है कि विरूधक ने उनको निकाल दिया था और दोनों अपने पति की विपत्ति बँटाने राजगृह जा रही थीं। उन्हीं से प्रसेनजित ने जाना कि विरूधक राजा बन बैठा है। प्रसेनजित ने मल्लिका से कहा कि तुम अपने बेटे के साथ राज का सुख भोग करो और उसे समझा बुझा कर श्रावस्ती लौटा दिया। वार्षिका के साथ प्रसेनजित राजगृह की ओर गया और दोनों राजा अजातशत्रु के एक बाग में ठहरे। प्रसेनजित का राजगृह आने का समाचार देने वार्षिका अजातशत्रु के पास चली गई। पहिले तो अजातशत्रु कुछ डरा परन्तु जब उसे यह विदित हुआ कि प्रसेनजित राज्यच्युत हो कर अकेला अपनी रानियों के साथ राजगृह आया है तो उसके उचित अतिथि सत्कार का प्रबन्ध करने लगा। इसमें देर हुई और भूखा प्यासा प्रसेनजित एक शलजम के खेत में चला गया जहाँ किसान ने उसे कुछ शलजम उखाड़ दिये। भूख का मारा प्रसेनजित उन्हें जड़ पत्ते समेत चबा गया और पानी पीने एक तालाब पर पहुँचा। पानी पीते ही उसके पेट में पीड़ा उठी और उसके हाथ-पाँव ऐंठने लगे। वह सड़क की पटरी पर गिर पड़ा जहाँ गाड़ियों की धूर इतनी उड़ रही थी कि वह दम घुट कर मर गया।

राजा अजातशत्रु को प्रसेनजित की लाश सड़क पर मिली और उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसने योग्यतानुसार कराई। रानी वार्षिका ने राजगृह ही में अपने दिन काटे। यह विचित्र बात यह है कि बुद्धदेव के पहिले दो बड़े शिष्यों को उनके बेटों ही ने मार डाला। हमारी समझ में यह आता है कि दोनों धर्म भ्रष्ट और ब्राह्मणों के पक्षपाती थे। ब्राह्मण उन दिनों प्रबल थे और अपनी प्रभुता पर जिस बात से किसी प्रकार का धक्का लगने की सम्भावना जानी उसके समूल नष्ट करने में कुछ उठ न रखा।