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अयोध्या का इतिहास

बौद्धग्रन्थों में यह भी लिखा है कि प्रसेनजित का एक बेटा तिब्बत पहुँचा और उस देश का पहिला राजा हुआ। यह राजा सनङ्ग सेतसेन के अनुसार ई० पू० ३१३ में सिंहासन पर बैठा। ग्रठन था-सेल-को-मी लाँग इसका राजत्व काल ई० पू०४१६ के पीछे लिखता है। हम इसको ठीक मानते हैं यद्यपि इसमें भी बाप-बेटे के समय के डेढ़ सौ बरस का अन्तर पड़ता है। हम समझते हैं कि तिब्बत का पहिला राजा प्रसेनजित का कोई वंशज था। उसके बेटे विरुधक ने शाक्यों का वध किया था वह बौद्धों का आश्रय-दाता कैसे हो सकता है? और न इस बात का प्रमाण मिलता है कि सूर्यवंश में उसका कोई उत्तराधिकारी इस नये धर्म का पक्षपाती था। सूर्यवंश के पीछे शिशुनाक वंश के राजा नन्दिवर्द्धन के विषय में कहा जाता है कि उसने अयोध्या में एक स्तूप वनवाया जो अब मणिपर्वत के नाम से प्रसिद्ध है। सम्राट अशोक ने विस्तृत राज्य में तीन बरस के भीतर ८४००० स्तूप बनवाये थे। उनसे अयोध्या कैसे वंचित रह सकती थी? पुरातत्वज्ञान ही की खोज से खुदाई की जाय तो यह निश्चय हो सकता है कि शाहजूरन का टीला और सुग्रीव पर्वत आदि टीले जो अयोध्या में फैले हुये हैं अशोक के बनाये स्तूपों के भन्नाव- शेष हैं। अयोध्या में पत्थर नहीं है और ईट चूने का काम कानपूर के भीतरीगाँव के मन्दिर की भाँति राह से हटा हुआ न हो तो सुगमता से खुद कर नये मकानों के बनाने में काम आ जाता है।

पुष्यमित्रवंशी बौद्धधर्म के बैरी थे। इनके पीछे गुप्तों के राज्य में हम सुनते हैं कि महायान संप्रदाय का गुरु वसुबन्धु पुस अयोध्या में रहता था। वसुबन्धु कौशिक ब्राह्मण पुरुषपुर (पेशावर) का रहनेवाला था। उसने अयोध्या में आकर विक्रमादित्य को अपना चेला बनाया। विक्रमादित्य के मरने पर युवराज वालादित्य और उसकी माता दोनों ने जो वसुबन्धु के चेले थे, उसे अयोध्या बुलाया और यहीं वह अस्सी बरस की अवस्था में मर गया।