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अयोध्या और बौद्धमत


जापान के सुप्रसिद्ध विद्वान् तकाक्सू निश्चित रूप से कहते हैं कि यहस विक्रमादित्य, स्कन्धगुप्त था जिसने ई० ४५२ से ई० ४८० तक राज किया और उसका उत्तराधिकारी बालादित्य ई० ४८१ में सिंहासन पर बैठा था। डाक्टर विन्सेण्ट स्मिथ ने भी इस पर विचार किया है। उनका यह मत है कि समुद्रगुप्त ने वसुबन्धु को या तो अपना मंत्री बनाया या अंतरङ्ग सभासद किया। इसमें उसका पिता प्रथम चन्द्रगुप्त भी सहमत था। स्मिथ साहब का यह भी मत है कि चन्द्रगुप्त ने अपनी किशोरावस्था में बौद्धधर्म सीखा था और उसका पक्षपाती था यद्यपि ऊपर से ब्राह्मण धर्मानुयायी बना हुआ था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पहिला चीनी यात्री फ़ाहियान अयोध्या में आया था। वह अयोध्या को शाची कहता है जो चीनी भाषा में साकेत का रूपान्तर है। उसकी यात्रा का निम्नलिखित वर्णन जेम्स लेग (James Legge) के फ़ाहियान ट्रेवेल्स (Fahian's Travels,) में दिया हुआ है जिसका अनुवाद यह है :—

"यहाँ से तीन योजन दक्षिण पूर्व चलने पर शाची का विशाल राज्य मिला। शाची नगर के दक्षिण फाटक से निकल कर सड़क के पूर्व वह स्थान है जहाँ बुद्धदेव ने अपनी दतून गाड़ दी थी। वह जम गयी और सात हाथ ऊँचा पेड़ हो कर रुक गया, न घटा न बढ़ा। विरोधी ब्राह्मण बहुत बिगड़े।"

दूसरा चीनी यात्री ह्वानच्चांग है जो बैस राजा हर्षवर्द्धन के समय में भारतवर्ष की यात्रा को आया था और उसी के सामने प्रयागराज में हर्षवर्द्धन ने बड़ा मेला कराया जिसमें सब बड़े बड़े धार्मिक संप्रदायों के विद्वान उपस्थित थे। उसकी यात्रा का वर्णन उपसंहार द और ध मेंदिया हुआ है। ह्वानच्वाग ने दो नगर लिखे हैं पिसोकिया जो विशाखा का चीनी रूप है और अयूटो (अयोध्या)। दोनों नगर मिले हुये थे परन्तु भिन्न थे। सम्भव है कि यात्री पहिले एक नगर में आया फिर धूमता फिरता दूसरे नगर में पहुँचा। उसने भी दतून के विषय में वही बात लिखी है जिसका