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अयोध्या का इतिहास

पर इतना विश्वास नहीं करते थे जितना अंग्रेजी सरकार करती है। मुग़ल सम्राटों के अधिकृत पश्चिम के प्रान्तों पर लाहौर से शासन किया जाता था और अकबर और जहाँगोर दोनों वहाँ साल में कई महीने रहते थे। पठान सम्राटों के इतिहास से उन्हें विदित हो गया था कि भोगपति अपनी मनमानी करने पाते तो स्वतंत्र राजा बन बैठते। अशोक ने राजूकों[१] को पूरे अधिकार दे दिये थे। राजूक अंग्रेजी राज के कमिश्नर के पद के रहे हों या गवर्नर के। अशोक काे अनुभव से यह विदित हो गया था कि अपनी प्रजा राजूकों को सौंप कर वह ऐसा निश्चिन्त रहता था जैसे कोई अपना बच्चा चतुर धाय को सौंप कर सुचित्त हो जाता है। समुद्रगुप्त की एक राजधानी झूँसी में थी जो इलाहाबाद के सामने गंगा उस पार अब एक छोटा सा गांव है और उसके बनाये हुये दुर्ग के पत्थर कुछ तो अकबर के किले में लग गये और कुछ अब तक गाँव में इधर उधर पड़े हैं। झूँसी का प्रसिद्ध कुआँ समुद्रकूप दुर्ग के भीतर रहा होगा। बी० एन० डबल्यू रेलवे लाइन के पास हँसतीर्थ से छतनगा तक गंगा के उत्तर तट पर पैदल चलने का कष्ट उठाया जाय और आँखें खुली रहें तो अब तक खड्ड मिलते हैं जिनमें पक्की नेंवें देख पड़ती हैं। जिस स्तम्भ के ऊपर हरिषेण की प्रशस्ति खुदी है वह पहिले काशाम्बी में रहा हो परन्तु जब यह प्रशस्ति खोदी गई तो प्रयाग ही में था। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ई० ३७५ में सिंहासन पर बैठा और ई० ३९५ उसने मालवा जीता जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। मालवा अत्यन्त समृद्ध प्रान्त था और उस देश की, वहां के रहने-वालों और वहाँ के शासन की बड़ाई चीनी यात्री फ़ाहियान करता है, जो इसी विक्रमादित्य के शासन काल में भारत-यात्रा को आया था। डाक्टर विन्सेण्ट स्मिथ का कथन है


  1. पाश्चात्य विद्वानों का यह मत है कि राजूक कुछ दिन बीते दिविर कहलाये पीछे इनका नाम कायस्थ पढ़ गया।