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अयोध्या के गुप्तवंशी राजा

कि सौराष्ट्र और मालवा प्रान्तों को जीतने से साम्राट को बड़े धनी और उपजाऊ सूबे तो मिल ही गये, पश्चिमी समुद्र तट पर बन्दरगाहों की भी राह खुल गई और जल-मार्ग द्वारा मिश्र की राह से यूरप के साथ व्याेपार होने लगा और उसकी सभा और उसकी प्रजा दोनों को पाश्चात्य यूरपो विचारों का ज्ञान हो गया जिसे सिकंदरिया के व्यापारी अपने माल के साथ लाते थे।

इससे हमारे इस अनुमान को पुष्टि होती है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजधानी उज्जैन में भी थी और उज्जैन ही से वह अयोध्या आया था जिसका वर्णन उसकी सभा के महाकवि ने अपने रघुवंश काव्य के सर्ग १६ में किया है। इस यात्रा में उसने विन्ध्याचल को पार किया[१] और हाथियों का पुल बना कर गङ्गा उतरा।[२]

अवध गजे़टियर में विक्रमादित्य के राज-काल को एक और जन- श्रुति लिखी है। वह यह है कि राजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में अस्सी वर्ष राज किया। यह मान लिया जाय कि राजधानी अयोध्या में ई० ४०० में आई तो अस्सी वर्ष ई० ४८० में बीत गये होंगे, जब कि प्रोफेसर तकाक्सू के अनुसार गुप्तराज का अन्त हो गया।

परन्तु प्रोफेसर तकाक्सू के अनुमान से एक और बात सिद्ध होती है। बालादित्य बसुबन्धु का चेला था और उसे अयोध्या से कोई अनुराग न था जैसा कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को था। कुछ हूणों के आक्रमण से कुछ कुमार-गुप्त के उत्तराधिकारियों की निर्बलता से गुप्त राजा फिर पुरानी राजधानी को लौट गया, और अयोध्या पर जोगियों अर्थात् ब्राह्मण साधुओं का अधिकार हो गया और इन लोगों ने बल पा कर अयोध्या में निर्बल बौद्ध साम्राज्य का रहना कठिन कर दिया। हम यहाँ


  1. व्यलंघयद् विन्ध्यमुपायनानि पश्य पुलिन्दै रुपपादितानि।
  2. तीथे तदीये गजसेसुतबन्धात् प्रतीपंगामुत्तरतोऽथ गङ्गाम्।