एक बात और कहना चाहते हैं जो इन लोगों के ध्यान में नहीं आ सकती जो अयोध्या के रहनेवाले नहीं हैं। जिस टीले पर जन्म स्थान की मसजिद बनी है उसे यज्ञ-बेदी कहते हैं। ई० १८७७ में गोविन्द द्वादशी के पहिले जब कि मसजिद के भीतर बहुतेरे कुचल कर मर गये थे और गली चौड़ी की गई और टीले पर अस्तर करा दिया गया, इस टीले में से जले-जले काले-काले चाँवल खोद कर निकाले जाते थे और कहा जाता था कि ये चाँवल दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के हैं। हम इनको उस यज्ञ के चाँवल समझते हैं जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने राजधानी के जीर्णोद्धार के समय किया था। प्रसिद्ध है कि विक्रमादित्य ने अयोध्या में ३६० मन्दिर बनवाए थे। अब उनमें से एक जन्म स्थान का मन्दिर मसजिद के रूप में वर्तमान है।
अवध में गुमराज का दूसरा चिह्न गोंडे के जिले में देवीपाटन का टूटा मंडप है।
अयोध्या के इतिहास को कवि कालिदास के जीवन-काल पर विचार से कोई विशेष लगाव नहीं है। परन्तु यह मान लिया जाय कि वह महाकवि विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त की सभा का एक रत्न था तो वह अपने आश्रयदाता के साथ अवश्य अयोध्या आया होगा। हम कुछ अपने विचार इस विषय में यहाँ लिख देते हैं। परन्तु हमें कोई विशेष आग्रह इनके ठीक होने का नहीं है। इसकी विवेचना फिर कभी की जायगी।
महाकवि कालिदास के लेखों से विदित होता है कि वे किसी सूखे पहाड़ी और रेतीले देश के रहनेवाले थे। यही हमारे गुरुवर महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री, एम० ए०, सी० आई० ई०, का मत है। उनकी जन्मभूमि होने का गौरव मन्दसोर को प्राप्त हुआ और वह सब से पहिले उज्जयिनो में विक्रमादित्य के दरबार में आये। उनकी प्रतिभा ने उन्हें तुरन्त राजकवि के पद पर पहुंचा दिया। हिन्दुस्तानी दरबार के कविलोग सदा राजा के साथ रहते हैं और आज-कल भी जब राजा