पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३६
अयोध्या का इतिहास

पर चढ़ता उतरता है।[१] बनरखों को आधी रात के पीछे हँकवा कहने की आज्ञा थी। दिन के अहेर के पीछे जो जन्तु मारे जाते थे उन्हें भून कर राजा के साथ सभासद भी दिन को समय कुसमय खाते थे। यह सब चन्द्रगुप्त को अच्छा लगता रहा हो परन्तु महाकवि को रुचि के प्रतिकूल था। उसको हँकवे के कारण सोते से जागना बुरा लगता था। कहाँ राज-सदन का स्वादिष्ट भोजन और कहाँ बन का खाना; कहाँ कोमल गद्दे पर सोना और कहाँ बन में पयाल पर पड़ना, सो भी नींद भर सोने न पाना। यही बातें उसने नाटक में विदूषक के मुँह से कहलाई हैं।

यह भी विचित्र बात है कि कृष्ण और रुक्मिणी के नाम पहिले नाटक मालविकाभि में हैं परन्तु दो बड़े नाटकों (अभिज्ञानशाकुन्तल और विक्रमोर्वशी) में विष्णु के अवतारों का कहीं नाम नहीं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि यह दोनों चन्द्रगुप्त के भागवत होने से पहिले लिखे गये थे और इसमें भी सन्देह नहीं कि चन्द्रगुप्त उज्जयिनी ही में भागवत हो गया था।

राजा के धर्म बदलने के पीछे संस्कृत साहित्य का दूसरा रत्न मेघदूत रचा गया। मेघ की यात्रा रामगिरि से आरम्भ होती है जिसको बनवास में श्रीराम जानकी के निवास का श्रेय है। चित्रकूट पर्वत में उनके जग-बंद्य चारण चिह्न हैं। दूत मेघ को हनुमान की उपमा दी गई है और यक्ष की स्त्री को सीता की।[२] कालिदास को उज्जयिनी से प्रेम था, उसका आश्रयदाता भी उसे चाहता था इसलिये वह उज्जयिनी को कैसे छोड़ सकता था। उज्जयिनी मेघ की उस राह में नहीं है जो प्रकृति के अचल नियमों ने उसके लिये बना रक्खी है, परन्तु मेघ को अपनी राह से


  1. गिरिचर इव नाग; माणसारं विति।
  2. इत्याल्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा।