ईस्वी सन् १०३२ (वि॰ १०७९) में बहराइच पहुँची जहाँ वालार्क (सूर्य नारायण) का बड़ा भारी मन्दिर और एक तालाब था। कौशल्या नदी (कौड़ियाला) के किनारे युद्ध हुआ और ईस्वी १०३३ में मसऊद मारा गया और उसकी सारी सेना काट डाली गई। मुसलमानों में यह कथा प्रसिद्ध है कि मसऊद ने वालार्क का मन्दिर देख कर कहा था कि हमारी जय हुई तो हम यहीं गड़ेंगे। दो सौ वर्ष पीछे जब मुसलिम राज स्थिर हो गया तब मन्दिर तोड़ कर मसऊद की समाधि बना दी गई। और अवध गजे़टियर में यह लिखा है कि क़ब्र में मसऊद का शिर सूर्य-नारायण के मूर्ति पर रक्खा हुआ है।
हमने तारीख़ सैय्यद-सालार मसऊद ग़ाज़ी देखी है। उसमें कहीं ग़ाज़ी मियाँ के अयोध्या आने की चर्चा नहीं है।[१] गजे़टियरकार[२] ने यहाँ तक लिखा है कि अयोध्या में उस समय श्रीवास्तव्य राजा प्रवल थे और मसऊद के हारने का कारण श्रीवास्तव्य ही हुये यद्यपि इतिहास में मसऊद का परास्त करनेवाला राजा सुहेलदेव कहलाता है। सम्भव है कि इन्हीं श्रीवास्तव्यों के शक्ति को देख कर ग़ाज़ी ने अयोध्या की ओर बढ़ने का साहस न किया हो, यद्यपि सत्रिख से बहराइच की अपेक्षा अयोध्या सन्निकट थी। अयोध्या ऐसे प्रसिद्ध स्थान में ग़ाज़ी मियाँ या उनके सैनिकों में पदार्पण किया होता तो उक्त तारीख़ में उसका अवश्य वर्णन होता।
अयोध्या के कनक-भवन के अधिकारियों ने एक पत्र छापा है, जिसमें लिखा है कि कनक-भवन को ग़ाज़ी मियाँ ने नष्ट किया था। परन्तु ग़ाज़ी मियाँ के अयोध्या आने का प्रमाण संदिग्ध है।
महमूद के मरने पर ग़ज़नी का राज्य नष्ट हो गया। यहाँ तक कि