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अयोध्या का इतिहास


कहनेवाले कह सकते हैं कि छन्द में अयोध्या का नाम पहिले आना उसके प्राधान्य का प्रमाण नहीं। परन्तु यह ठोक नहीं; एक प्रसिद्ध श्लोक और है जिससे प्रकट है कि अयोध्या तीर्थ-रूपी विष्णु का मस्तक है:—

विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्ये च काञ्चीपुरीन्
नाभिं द्वारवतीस्तथा च हृदये मायापुरीं पुण्यदाम्।
ग्रीवामूलमुदाहरन्ति मथुरां नासाञ्च वाराणसीम्
एतद्ब्रह्मविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरीं मस्तकम्॥

शेष छः तीर्थो में से अनेक की बड़ाई इसी कोशल-राजधानी के सम्बन्ध से हुई है। श्रीकृष्ण जी के जन्म से बहुत पहिले मथुरा को शत्रुघ्न ने बसाया था, जिनका श्रीरामचन्द्र ने यमुनातट पर बसे हुये नपस्त्रियों के सतानेवाले लवण को मारने के लिये भेजा था। माया या मायापुरी हरिद्वार का नामान्तर है जहाँ अयोध्या के राजा भगीरथ की लाई हुई गङ्गा पहाड़ों से निकल कर मैदान में आती है और काशी अयोध्या की श्मशान-भूमि है।

इन दिनों भी अयोध्या जैन-धर्मावलम्बियों का ऐसाही तीर्थ है जैसा हिन्दुओं का। अध्याय ८ में दिखाया जायगा कि २४ तीर्थंकरों में से २२ इक्ष्वाकुवंशी थे और उनमें से सबसे पहिले तीर्थंकर। आदिनाथ (ऋषभ-देव जी) का और चार और तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था।

"बौद्धमत की तो कोशला जन्मभूमि ही माननी चाहिये। शाक्य-मुनि की जन्मभूमि कपिलवस्तु और निर्वाणभूमि कुशिनगर[१] दोनों कोशला में थे। अयोध्या में उन्होंने अपने धर्म की शिक्षा दी और वे सिद्धान्त बनाये जिनसे जगत्प्रसिद्ध हुये और कुशिनगर में उन्हें वह पद प्राप्त हुआ जिसकी बौद्धमतवाले आकांक्षा करते और जिसे निर्वाण कहते हैं।"[२]


  1. आजकल की कसिया (गोरखपुर ज़िले में)।
  2. Oudh Gazetteer, Vol. I. page 4