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अयोध्या का इतिहास

दर्शनेश्वरनाथ का पत्थर का शिवाला बनवाया जो अवध प्रान्त में अद्वितीय है। सूर्यकुण्ड का पक्का तलाव और उसी के पास दर्शन नगर बाजार उनके कीर्ति के स्तम्भ अब तक विद्यमान हैं। उनकी वीरता, उनका दान, उनका न्याय और राज-विद्रोहियों (सर्कशों) का दमन संसार में प्रसिद्ध है। इस अन्तिम काम के लिये उनको बादशाही से सरकोबे सरकशां सलतनत बहादुर (سرکوب سرکشان سلطنت بهادر) की उपाधि मिली थी।

राजा दर्शनसिंह की वीरता बखान में इतिहास का यह अंश बहुत बढ़ जायगा। राजा दर्शनसिंह ५ वर्ष तक वैसवाड़े के नाज़िम रहे । वैसवाड़े के तालुकदार क्या बड़े क्या छोटे सरकारी जमा देना जानते ही न थे। उनका बल बहुत बढ़ा हुआ था और उनकी गढ़ियों पर तोपें चढ़ी रहती थीं। दर्शनसिंह ने कुछ बड़े-बड़े ताल्लुकेदारों के नाम परवाने जारी किये जिनमें यह लिखा था कि अपनी भलाई चाहते हो तो तुरन्त उपस्थित हो कर सरकारी जमा दाखिल करो ताल्लुकदारों ने परवाने पाकर युद्ध करना निश्चय कर दिया। राजा दर्शनसिंह ने पहिले धावा मार कर मुरारमऊ की गढ़ी तोड़ी और गढ़ी के रक्षक एक पगडण्डी के रास्ते निकल भागे। इस गढ़ी के टूटने से और ताल्लुकदारों के छक्के छूट गये।

बलरामपूर के ताल्लुकेदार राजा दिग्विजयसिंह जी सरकारी जमा नहीं देते थे। राजा दर्शनसिंह ने सेना समेत बलरामपूर की गढ़ी पर चढ़ाई कर दी। राजा गोरखपूर को भाग गये और दूसरे साल नेपाल की तराई होकर अपने देश को लौटना चाहते थे कि राजा दर्शनसिंह ने समाचार पाकर एक लम्बी दौड़ लगाई और राजा के डेरे पर धावा मार दिया।[१] राजा अपना प्राण बचा कर भागे। उस दिन आने जाने में ४५ कोस की दौड़ हुई। नैपाल के हाकिम गोसाई जयकृष्ण पुरी ने सीमा पार करके नेपाल राज में प्रवेश करने के लिये दर्शनसिंह की शिकायत


  1. Oudh Gazetteer, p. 218.