पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७१
अयोध्या के शाकद्वोपी राजा

नैपाल-दर्बार मे की। नैपाल के रेज़िडेण्ट ने लखनऊ के रेजीडेण्ट को लिख भेजा। बादशाही दर्बार से जवाब लिया गया और यह निर्णय हुआ कि लूट पाट में नेपाल की प्रजा की जो हानि हुई है वह राजा दर्शन सिंह से दिलवा दी जाय। राजा साहब ने हानि का (१४५३) तुरन्त दे दिया और फिर अपने काम पर बहाल हुये। बादशाह अमजद अली शाह के समय में जब तक नव्वाब मुनव्वरउद्दौला वज़ीर रहे सारी सलतनत का प्रबन्ध राजा दर्शनसिंह को सौंपा गया। राजा साहब ने यहाँ तक इकरार नामा लिख दिया कि सरकारी जमा में जो कुछ बाक़ी रहेगा उसे हम देंगे। इसी समय में उनको कचहरी करने के लिये लालबारा दिया गया जहाँ अयोध्या-राज का प्रासाद अब तक विद्यमान है। इसी समय बीमार हो कर अयोध्या चले आये और श्रावण सुदी ७मी को अयोध्यावास लिया। राजा दर्शनसिंह के भाई इच्छासिंह भी सुल्तानपूर, गोंडा और बहराइच के नाजिम रहे। उनके सबसे छोटे बेटे का नाम रघुबर दयाल था। वह भी १२५३ फ़सली में गोंडा और बहराइच के नाज़िम हुये और उनको राजा रघुबर सिंह बहादुर की उपाधि मिली।

राजा बख्तावर सिंह और राजा दर्शनसिंह का मिल कर
इलाक़ा मोल लेना।

जब राजा बख्तावर सिंह ने अपने भाइयों को ऊँचे-ऊँचे पद दिलवा दिये तो उनकी यह इच्छा हुई कि अब जिमींदारी लेनी चाहिये और उन्होंने अनुमान १५०० गाँव मोल ले लिये और अपने सुप्रबन्ध से प्रजा को प्रसन्न रक्खा। जब मेजर स्लीमन ने सूबे अवध का दौरा किया तो मेहदौना राज की प्रजा की स्मृद्धि देख कर बहुत प्रसन्न हुथे जिसका वर्णन उनकी पुस्तक में किया गया है।

जब बादशाह नसीरउद्दीन हैदर का देहान्त हुआ और मेजर लो (Low) रेजिडेण्ट मुहम्मद अली शाह को तख्त पर बैठाने के लिये अपने