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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२११

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अयोध्या के शाकद्वीपी राजा

ने बड़ी वीरता दिखाई जिससे उनको इतनी प्रतिष्ठा मिली। हमको भी चाहिये कि ऐसे राज को न छोड़ें जो लाखों रुपये के व्यय से प्राप्त हुआ है। लोग यही कहेंगे कि राजा दर्शनसिंह के मरने पर उनकी सन्तान में कोई ऐसा न निकला जो राज को सँभालता और अपने घर को देखता भालता। हम लोग ऐसे उत्साहहीन हुये कि बिना लड़े भिड़े अपने बाप दादों की कमाई खो बैठे।"

ऐसा विचार कर के उन्हों ने अपने भाईयों से कहा कि आप लोग अंग्रेजी राज में जायँ, मैं यहीं रहूँगा। उनके पास उस समय न कोश था और न सेना थी। इसीसे बिना पूछे थोड़े से वीरों के साथ निकल पड़े और कुछ विरोधियों से भिड़ गये। इस में उनकी जीत हुई। इस से उनके सारे राज में उनकी धाक बंध गई। उस समय किसी कारण से राजा बखतावरसिंह बादशाही में नजरबन्द थे। महाजन से ३ लाख रुपये लेकर उन्हें भी छुड़ाया और राजा बख्तावरसिंह फिर दर्बार में पहुँच गये। महाराजा मानसिंह के सुप्रबन्ध का समाचार बादशाह के कानों तक पहुँचा। उस समय सूरजपूर का तालुक़द़ार बड़ा अत्याचारी था। बादशाह को यह समाचार मिला कि उसने अपनी गढ़ी में ४०० बन्दी बन्द रखे हैं जिनको वह लकड़ी इकट्ठा करके जीते जी भस्म करना चाहता है। बादशाह ने राजा बख्तावर सिंह से कहा कि अपने भतीजे को इस दुष्ट को दण्ड देने के लिये आज्ञा दो। राजा साहब बड़ी चिन्ता में पड़ गये क्यों कि मानसिंह की उस समय उमर कम थी परन्तु बादशाह की आज्ञा कैसे टल सकती थी। महाराजा मानसिंह ने गुप्तचर भेजे तो विदित हुआ कि सूरजपूर के राजा की गढ़ी में ३ हाते हैं। तीन हजार सिपाही हथियारबन्द उपस्थित हैं और ग्यारह तोपें गढ़ी के बुर्ज़ों पर चढ़ी हैं। यह भी निश्चित रूप से विदित हुआ कि परसों सब बन्दी भस्म कर दिये जायँगे। महाराजा साहब ने सोचा कि सेना लेकर चलें तो गढ़ी घिर जायगी परन्तु बन्दी